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________________ १६ भगवती सूत्रे सुदूरपराहताः तथापि भगवता केवलालोकेन दृष्टत्वात् भगवतः सर्वज्ञस्य वचन श्रद्धामादायैव तथास्वीकारस्य आवश्यकत्वात्तत्स्वीकरणीयमिति १८ । 'अणुबंधो जहा ठिई' अनुबन्धो यथास्थितिः, येन प्रकारेण स्थितिः प्रदर्शिता तेनैवमकारेणानु बन्धो ज्ञातव्यः, अनुबन्धो जघन्येनान्तेरूपः उत्कृष्टतस्तु द्वाविंशतिवर्षसहस्र रूप इति १९ । ' से णं भंते !' स खलु भदन्त ! प्रथमम् ' पुढदीकाइए' पृथिवी - कायिकः, ततो मृत्वा 'पुणरवि पुढवीकाइए' पुनरपि पृथिवीकायिकः 'त्ति' इति - एवं क्रमेण 'केवइयं कालं सेवेज्जा' कियन्तं कालं पृथिवीकायिकस्थिति सेवेत 'केवइयं कालं गइरागई करेज्जा' कियन्तं कालं गत्यागती कुर्शत् हे भदन्त ! यो हि पृथिवीकायको जीवः स पृथिवीकायात् मृत्वा पुनरपि पृथिव्यामेव जातः अपने केवलज्ञान रूप आलोक (प्रकाश) से इस बात को वहां देखा है, इसलिये सर्वज्ञों के वचन में श्रद्धा रखकर यह कथन स्वीकार करना ही चाहिये १८ 'अणुबंधो जहा ठिई' जिस प्रकार से यहां स्थिति दिख लाई गई है उसी प्रकार से अनुबन्ध भी जानना चाहिये, इस प्रकार अनुबन्ध जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त का है और उत्कृष्ट से वह २२ हजार वर्ष का है १९ अब गौतम प्रभु से इस प्रकार से पूछते हैं'से णं भंते ! पुढची काह ए०' हे भदन्त ! वह पृथिवीकायिक जीव जब मरकर पुनः पृथिवीकायिक हो जाता है तो वह इस क्रम से कितने काल तक पृथिवीकायिक की स्थिति का सेवन करता है ? कितने काल तक वह वहां गमनागमन करता है ? अर्थात्-जो पृथिवीकायिक जीव है वह पृथिवीकायिक से भरकर पुनः पृथिवीकायिक में ही उत्पन्न होता है तो इस क्रमसे वह कितने काल तक पृथिवीकाय को सेवन करता है और ભગવાને પેાતાના કેવળ જ્ઞાન રૂપી આલાક (પ્રકાશ) થી આ વાત ત્યાં જોઈ છે. જેથી સર્વજ્ઞ એવા પ્રભુના વચનમાં વિશ્વાસ રાખીને આ કથનના સ્વીકાર ४२वा ४ ले थे. १८, अणुबंधों जहा ठिई' नेवी रीते मडियां स्थितिना समધમાં થન કર્યુ” છે. એજ રીતે અનુમ'ધના સબંધનું કથન પણ સમજી લેવું. આ રીતે અનુખ ધ-જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતના અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૨ ખાવીસ હજાર વર્ષોંના છે. ૧૯ હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને ફરીથી પૂછે છે કે'से of भंते ! पुढवीकाइए०' हे लभवन ते पृथ्वीप्रायिक व न्यारे भरीने दूरीथी પૃથ્વી કાયિક થઈ જાય છે તે તે આ ક્રમથી કેટલા સમય સુધી પૃથ્વીકાયકની સ્થિતિનુ સેવન કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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