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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ ३.१२ सु०१ पृथ्वीकायिकानामुत्पातनिरूपणम् १५ दुःखोभयात्मिका वेदना भवतीति भावः १५। वेदद्वारे-'णो इथिवेयगा णो पुरिसवेयगा' नो स्त्रीवेदका भवन्ति नो पुरुषवेदका भवन्ति किन्तु 'णपुंसग. वेयगा' नपुंसवेदका भवन्ति पृथिवीकायिकजीवेषु पुंस्त्रोवेदो न भवति किन्तु सर्वे नपुंसका एव भवन्तीति १६ । 'ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' स्थितिजघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् 'उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई उत्कर्षेण द्वाविंशतिवर्ष सहस्राणि पृथिवीकायिकजीवानां जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा, उत्कृष्टा च द्वाविंशतिवर्षसहस्रपमाणा इति भावः १७ । 'अज्झवसाणा पसत्यावि अपसत्थावि' अध्यवसायाः-विचाराः प्रशस्ता:-शुमा अपि भवन्ति अप्रशस्ता:-अशुभा अपि भवन्ति, यद्यपि एकेन्द्रियाणां मनसोऽपतिपादनाद् विचार एव न भवति विचारस्य मनोजन्यत्वेन मनसोऽभावे तज्जन्यविचारस्यापि अभावात् शुभाशुभादयस्तु संभावनैव दुविहां' इन पृथिवी कायिक जीवों के सुख दुःखात्मक दोनों प्रकार की वेदना होती है, वेदद्वारमें ये 'जो इथिवेयगा, णो परिसवेयगा' किन्तु 'णपुसग वेयगा' न स्त्रोवेवाले होते हैं, न पुरुष वेवाले होते हैं किन्तु नपुंसक वेदवाले ही होते हैं । 'ठिई जहन्नेणं अंतोमुटुतं' स्थिति इनकी जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्तकी होती है और उत्कृष्टसे २२ हजार वर्ष की होती है। 'अज्झवसाणा पसत्था वि अपसस्था धि' इनके विचार शुभ भी होते हैं और अशुभ भी होते हैं । यद्यपि एकेन्द्रिय जीवों के मन का प्रतिपादन नहीं हुआ हैं, अत: मन के अभाव से उनमें विचार ही नहीं होता है क्योंकि विचार मन से होता है मन के अभाव में वह होता नहीं है अतः यहां शुभाशुभ विचारों के होने की सम्भावना ही नहीं हो सकती है-फिर भी भगवान ने -'वेयणा दुविहा' मा पृथ्वी थिई वोन सुम ३५ भने ५ ३५ मे, અને પ્રકારની વેદના હોય છે. व बारमा-'णों इथिवेयगा, णों पुरिसवेयगा, णसगवेयगा' तेव्या સ્ત્રીવેદ વાળા હોતા નથી તથા પુરૂષ વેદ વાળા પણ કહેતા નથી પરંતુ નપું. स वा हाय छे. 'ठिई जहण्णेणं अतोमुहुत तेमनी स्थिति ४. ન્યથી એક અંતમુહૂતની હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૨ બાવીસ હજાર વર્ષની डाय छे. 'अज्झवसाणा पसत्था वि अपनत्था वि' मानुं अध्यक्सान-माम પરિણામ શુભ પણ હોય છે. અને અપ્રશસ્ત અશુભ પણ હોય છે. જો કે એકેન્દ્રિય જીને મન હવા વિષેનું પ્રતિપાદન થયુ નથી-કેમ કે-વિચાર મનથી થાય છે. મનના અભાવમાં વિચારે થતા નથી. જેથી અહિયાં શુભ અને અશુભ વિચારે હવાને સંભવ જ હઈ શકત શકતું નથી, છતાં પણ
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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