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________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२४ उ. २००५ मनुष्येभ्य. पं. तिरश्चामुत्पातः - ३२१ उववज्जेज्ना' उत्कर्षेणापि त्रिपल्योपमस्थितिकतिर्यग्योनिकेषु उपपद्येत 'एसचे व बद्धी जब सतमगगे' एषैव लब्धिः - परिमाणादि प्राप्तिः यथैव सप्तमगमके, सप्तमगमके यद् यत् कथितं वचत् सर्वमिहापि वक्तव्यम् । कायसंवेधमाह - 'भवादेसेणं दो भाई' वादेशेन द्वे भवग्रहणे 'कालादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि पलिओ माई पुव्यकोडीए अमहियाई' कालादेशेन - काळापेक्षया जघन्येन त्रीणि परयोपमानि पूर्व कोटचाऽभ्यधिकानि 'उक्कोसेण वि तिनि पलिओ माई पुव्वकोडीए अमहियाई' उत्कर्षेणापि श्रीणि पल्योपमानि पूर्व कोटचाऽभ्यधिकानि । 'एवइयं जा करेज्जा' एतावन्तं कालं मनुष्यगतिं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतिं च सेवेत, तथाएतावत्कालपर्यन्तमेव मनुष्यगतौ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतौ च गमनागमने कुर्यादिति नवमो गमः ९ ॥ ०५ ॥ ज्जेज्जा' जघन्य से तीन पल्योपन की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योंनिकों में उत्पन्न होता है और 'उक्को सेण वि' उत्कृष्ट से भी वह 'तिपलिओदमडिएस उबवज्जेज्जा' तीन पल्योपम की स्थितिवाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है । 'एस चेव लद्वी जहेव सत्तम गमे' परिमाण आदि की प्राप्ति रूप लब्धि जैसी सप्तम गम में कही गई है । वैसी वह सब यहां पर भी कह लेनी चाहिये ! यहाँ काय संवेध 'भवादेसेणं' भनादेश से दो भवों को ग्रहण करने रूप है और 'कालादेसेणं' कालादेश से वह जघन्य से पूर्वकोटि अधिक तीन परयोपम का है और 'उक्कोसेणं वि' उत्कृष्ट से भी वह एक पूर्वकोटि अधिक तीन पोषन का है | 'एवइयं जाव फरेज्जा' इस प्रकार इतने काल तक वह जीव मनुष्यगति का और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्गति का सेवन करता है । तथा इतने ही काल तक वह उस मनुष्यगति और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्गति में नागमन करता है। ऐसा यह नौवां गम है ।। सू०५ ॥ ते 'तिपलिभोवमट्ठिएस उववज्जेज्जा' वायु यहयोपभनी स्थितिवाणा यथेन्द्रिय तिर्यथयोनिअमां उत्पन्न थाय छे. 'एस चेव लद्धी जद्देव सत्तमगमे' परिभाष વિગેરેની પ્રાપ્તિ રૂપ લબ્ધિ જે રીતે સાતમા ગમમાં હેલ છે. એજ રીતે તે સઘળી લબ્ધિ સખ"ધી કથન, અહિયાં કહેવું જોઈએ. અહિયાં કાયસ વેધ 'भवादेसेणं०' लवादेशथी मे लवाने अडथ ४२वा ३५ हो भने 'फालादेखेणं' असाद्देशथी ते धन्यथी पूर्व अटि अधि होने! छे भने 'उको सेणं जि०' उत्कृष्टथी तेथे पूर्व टिपियोमा छे.' 'एवइयं जाव करेज्जा' थे रीते आरसा क्षण सुधी ते लव मनुष्य गतिनु पर्ने પંચેન્દ્રિયતિય ચ ગતિનું સેવન કરે છે અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ મનુષ્ય ગતિમાં અને પચેન્દ્રિયતિય ચ ગતિમા ગમનાગમન કરે છે. એ प्रभा मा नवमेो गभ ह्यो छे, सू. या भ० ४१
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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