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________________ ૯૪ भगवतीसूत्रे संस्थानले श्यादिकं सर्वमपि ज्योतिष्कदेवप्रकरणपठितमेव इहापि संग्राह्यमिति । केवल ज्योतिष्कप्रकरणापेक्षा यद्वैलक्षण्यं तदाह - 'णवरं' इत्यादि, 'णवरं ठिई अणुबंध य जहन्ने पलिओ मं' नवरम् - केवलं स्थितिरनुबन्धश्च जघन्येन परयोपर्मम् 'उक्को सेणं दो सागरोवमाई' उत्कर्पेण द्वे सागरोपमे स्थित्यनुबन्धौ जघन्येन पल्योपमात्मक उत्कृष्टतो द्विसागरोपमौ भवत इति । 'कालादेसेणं जहन्नेणं पलिभोवमं अंतोमुडुत्तममहिये' कालादेशेन जघन्येन परयोपममन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकम् : अन्तर्मुहर्त्ताधिकेकपल्योपमात्मकः कायसंवेध इत्यर्थः । 'उको सेणं दो सागरोचमाई 'बावीसाए वाससइस्सेदि अम्महियाई' उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे द्वाविंशतिवर्षसह सेरभ्यधिके द्वाविंशतिवर्षसहस्राधिक द्वि सागरोपमात्मक उत्कृष्टतः कालापेक्षया कायसंवेध इति भावः । 'एवइयं०' एतावन्तं यावत्कुर्यात्, एतावन्तं कालम् - उपरोक्त - ज्योतिष्क देवों के प्रकरण में कहा गया संहनन, अवगाहना, संस्थान, लेश्या आदि का सच कथन यहां पर भी संगत करना चाहिये, परन्तु ज्योतिष्क के प्रकरण की अपेक्षा जो इस वैमानिक कल्पोपन्नक देव - के सम्बन्ध में अन्तर है वह स्थिति अनुबन्ध एवं कायसंवेध को लेकर है, यही बात सूत्रकार ने 'णवरं ठिई अणुबंधो य जहन्नेणं पलिओवमं, उक्को सेणं दो सागरोदमाई' इत्यादि सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की है, यहां स्थिति और अनुबन्ध जघन्य से एक पल्पोपम का है और उत्कृष्ट से वह दो सागरोपम का है, तथा काय संवेध काल की अपेक्ष जघन्य से अन्त मुहूर्त से अधिक दो सागरोपम का है और उत्कृष्ट से २२ हजार वर्ष अधिक दो सागरोपम का है, एवइयं०' इस प्रकार से यह सौधर्मदेव 19 રીતે જ્યાતિષ્ઠ દેવાના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ સટુનન, અવગાહના, સસ્થાન, લેશ્યા, વિગેરે સળ'ધી તમામ કથન અહિયાં પણ કહેવું જોઇએ. પરંતું ચેતિ દેવાના પ્રકરણ કરતાં જે આ વૈમાનિક પેપ પનક દેવના સખધમાં અંતર–જુદાપણુ` છે, તે સ્થિતિ અનુમધ અને કાયસ વેધના સંબં धभां छे. मेन बात सूत्रारे 'वर' ठिई अणुत्रंघोय जद्दन्नेणं पलिओवमं, उक्को सेणं दो सागरमाई' इत्यादि सूत्र पाठथी प्रगट रेस हे मडियां स्थिति અને અનુષધ જઘન્યથી એક પત્યેાપમનેા છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી તે બે સાગરી પમના છે. તથા કાયસ'વેધ કાળની અપેક્ષાથી જઘન્યથી અંતર્મુહૂત'થી અધિક એક પક્ષ્ચાપમના છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૨ ખાવીસ હજાર વર્ષાં અધિક એ સાઞशयभनो छे. 'एवइयं०' मा रीते मा 'सौधर्भ देवगतितुं भने पृथ्वी अय
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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