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________________ भगवती રૂઢ संहननेन संहननवन्ति देवशरीराणि न भवन्ति यास्तेपामस्थपादीनि न भवन्ति किन्तु इष्टकान्ता दिविशेषणविशिष्टाः पुद्गला एव तेषां शरीराकारेण परिणमन्ति तदेवात्र यावदेन दृष्टं भवति- 'त्रट्टी व छिरा व हारू पत्र संघयणम स्थि जे पोग्गला इट्ठा कंता पिया मणुन्ना मणामा ते तेसिं सरीरसंघायत्ताएत्ति' नैवास्थि, नेत्र शिरा, नैवस्नायु नैव संहननमस्ति तथापि ये पुनला इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोमाः ते तेपां शरीरसघाततया परिणमन्ति यद्यपि देवशरीरे अस्थ्यादिकं नैत्र भाति तथापि अस्थवादीनामभावेऽपि ये पुद्गला इष्टाः प्रियाः कान्ता मनोज्ञा मनोमास्ते पुद्गलास्तेषां देवानाम् शरीराकारेण परिणमन्त्येव संहननाऽभावेऽपि शरीरसंपत्ति भवत्येवेति भावः । तेसि णं भंते । जीवा के महालिया सरीरोगाहै, इनमें से किसी भी एक प्रकार के संहनन से देवो के शरीर संहनन वाले नहीं होते हैं-क्योंकि उनके शरीर में हड्डी आंते आदि नहीं होती हैं किन्तु इष्ट कान्त आदि विशेषणवाले पुगल ही उनके शरीर के आकार से 'परिणमते रहते हैं । यही बात यात्रत्पद ले कहते हैं- 'पोबट्टी, णेव छिरा, चव्हारू व संघयणमत्थि जे पोग्गला इट्ठा, कंता, दिया, मणुन्ना मणामा ते तेसि सरीरसंघापत्ताए त्ति' गृहीत हुआ है - इसका अभिप्राय ऐसा है कि उनके शरीर में अस्थि नहीं होती है, नसे नहीं होती हैं, स्नायु नहीं होती हैं, संहनन नहीं होता है, फिर भी जो पुद्गल, इष्ट कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोम है वे उनके शरीर संघात रूप से शरीराकार से परिणमते ही रहते हैं । तात्पर्य केवल यही है किसंहरूप अस्थि आदि के अभाव में भी उनको शरीर संपत्ति होती ही है । अब गौतम पुनः ऐसा पूछते हैं 'तेसिणं भते । जीवाण ચાવત્ સ'હનન પણાથી પરિણમતા રહે છે, કેમકે તેમના શરીરમાં હાડકાં આંતરડાં વિગેરે હાતા નથી. પરંતુ ઇષ્ટકાંત વિગેરે વિશેષણેાવાળા પુદ્ગલા જ તેના શરીરના આકારથી પરિણમે છે એજ વાત અહિયાં યાવપદથી ગ્રહણ કરાયેલ નીચે પ્રમાણેના પાઠથી બતાવેલ છે. જે આ अभाले छे. 'णेत्रट्टी, णेत्र छिरा, णेव ण्हरु, णेव संघयणमत्थि जे पोगल्ला, इट्ठा, कंता पिया, मणुन्ना, मणामा ते वेसि सरीरसंघायत्ताएति' આ સૂત્ર પાઠના અભિપ્રાય એ છે કે-તેના શરીરમાં હાડકા હાતા નથી. નસેા હાતી નથી, સ્નાયુ પણ હાતા નથી સહનન પણ હૈ।તા નથી. તાપણુ सष्ट, प्रिय, मनोज्ञ, भने असनोज्ञ छे, ते युद्ध तेखाना શરીરના સઘાત રૂપથી શરીરના આકારથી પરીણમતા જ રહે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય ફક્ત એજ છે કે સહનન રૂપ હાડકા વિગેરેના અભાવમાં પણ તેને શરીર સપત્તિ હોય જ છે, હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવુ પૂછે છે
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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