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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २० उ० ८ सू०१ कर्मभृभ्याटिकनिम्पणम भूमिषु उन्मपिण्यादि कालविभागो न भवतीनि । 'पYणं भने !' एनेषु खलु भदन्त ! 'पंना भर हेमु पंचम परवा' पञ्चसु भग्नेषु पत्रट परवनेषु क्षेत्रेषु 'अस्थि उस्सप्णिीह वा ओसारिणीड का' अति उत्सर्पिणी नि वा अवसर्पिणीति चा, हे भदन्त ! पश्च भरतपश्चरक्तक्षेत्रेषु उत्सविण्यवसर्पिणीयाको भत्तो न चेति प्रश्नः । उत्तरमाद-'हंता अत्यन्त, अम्ति हे गौतम ! भाते बने च क्षेत्रे इत्यपियादिकालविभागो भवत्येवेनि मा: '
पणे भने ! पंचर 'महाविदेहेसु' एनेपु खलु सदन्त ! पन महाविदलेट 'अग्धि उग्रापिणीड वा
ओमपिणी वा' अस्ति उत्मारिणीति का अरिणीति ना ? 'गोयना वत्यि उस्तप्पिणी णेवस्थि ओमविणी' हे शतम ! नैशम्ति उन्मर्पिणी नैयारिन अत्रविभाग नहीं होता है । यह विभाग तो भरतक्षेत्र और ऐरका क्षेत्र में ही होता हैं विदेह में झाल अचनिधन रहता है अर्थात् मदा चतुर्थ आरक जैसा रहता है । इसी विषय को स्पष्ट करने के लिए गौतम अप प्रभु से ऐसा पूछते हैं-पंचसु भर हेतु पंचतु एवएतु अस्थि उस्म' इत्यादि-हे भदन्त ! पांच भरत क्षेत्रों और पांच ऐरवत क्षेत्रों में उत्स. पिणी और अवसर्पिणी काल का विभाग होता है या नहीं ? इनके उत्तर में प्रभु करते हैं-'हंता, अस्थि हां, गौतम ! पांच भग्तक्षेत्रों में
और पांच रक्त क्षेत्रों में उत्प्तपिणी और अवार्षिणीकाल का विभाग होना है । 'एएतु णं पंचसु माविदेहेतु अस्थि उस्म' इत्यादि हे भदन्त ! पाँच महाविदेहों में क्या उत्मर्पिणी और अवसर्पिणी काल का विभाग होता है ? उत्तर में प्रभु करते हैं-'गोगमा ! णेवस्थि उस्मपिणी અકમિમાં ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળનો વિભાગ અતિ નથી. આ વિભાગ તે કારતક્ષેત્ર અને અરવતત્રમાં જ થાય છે. વિદેત્રમાં કાળ અવસ્થિત રહે છે. અમિત હંમેશાં એ આર રહે છે. આજ વિષયને १५४ ४२१! माटे जीतभस्वामी के मन मे ५७ छ -'पंचम भरटेन पंच एचएमु अत्यि RO' त्याहि भवन् पाय सतत्रो अने पाय રિવતક્ષેત્રોમાં ઉત્સપિ અને અવસર્પિણી કાળને વિકાસ થાય છે કે નથી થને? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે-ના અજિ' કા ગૌતમ! પાંચ ભરતક્ષેત્રોમાં અને પાંગ એરવતોમાં ઉત્સપિીિ અને અવસર્પિણી કાળા विलाय . 'मु ण पंचमु महाविदहमु अधि यम' २ લગન પંચ મહાવિદમાં પિત્ત અને અવ-પિંછી કાળનો વિકા या ? - APA SIMi Hy२ है-'गोगमा! य समिती