SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 607
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२ सू०१ असुरकुमारदेवस्योत्पादादिकम् ५८५ अथ षष्ठगमं निरूपयति-'सो चेव उकोसकालविइएस उववन्नो' स एवोत्कृष्टस्थितिकेषु उपपन्ना, स एव असंख्यातवर्षायुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको जीवो यदि उत्कृष्टकालस्थितिकासुरकुमारेषु समुत्पन्नो भवेत् तदा-'जहन्नेणं सातिरेगपुन्चकोडिआउएसु' जघन्येन सातिरेकपूर्वकोटयायुष्केषु असुरकुमारेषु तथा'उकोसेण वि साइरेगपुन्चकोडिआउएमु उपवज्जेज्ना' 'उत्कर्षेणाऽपि सातिरेक पूर्वकोटयायुष्केषु असुरकुमारेषु उत्पद्येत, 'सेसं तं चेत्र' शेषं तदेव एतद्व्यतिरिक्त सर्व प्रश्नोत्तरादिकम् पूर्ववदेव बोदव्यम् । एक समयेन कियन्त उत्पद्यन्ते इति प्रश्नस्थितिद्वार जो कि १७ वां द्वार है और बीसवां द्वार जो कायसंवेधद्धार है उसे विचार कर कहलेना चाहिये इस प्रकार यह पांचवां गम है। . छठा गम इस प्रकार से है-'सो चेव उक्कोसकालट्ठिएसु उवषयो' यदि वही असंख्यातवर्षायुष्क संज्ञी पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उस्कृष्ट काल की स्थिनिवाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है तो 'जहन्नेणं मातिरेगपुन्वकोडिाउएस्सु 'जघन्य से सातिरेक पूर्वकोटि की आयुघाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है और 'उक्कोसेण वि साइरेग पुन्धकोडिएसु उवव० उत्कृष्ट से भी वह सातिरेक पूर्वकोटि की आयुवाले असुरकु. मारों में उत्पन्न होता है। 'सेसं तं चेच' इस कथन के सिवाय और सय प्रश्नोत्तररूप कथन है वह सब कथन यहां पूर्वोक्त जैसा ही जानना ७ चाहिये, जैसे-ऐसे वे जीव वहां कितने उत्पन्न होते हैं ? तो इसका "કાર છે અને ૨૦ વીસમું જે કાયસંધ દ્વાર છે તે વિચારીને કહી नये. मा शत मा पांथा गम यो छ. . ' ' छटी गम वामां आवे छे-~'सो चेव उक्कोसकालढिइएसु उववन्नो' જે તે અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળો સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિય ચ ચનિવાળો Orge नी स्थितिवाणा मसुरशुभाशमा उत्पन्न थाय तो 'जहन्नेणं सातिरेकपुव्वकोडीभाउएसु' धन्यथा सातिरे-वाहिनी मायुष्यवाणा मसुरभारोमा उत्पन्न थाय छे. मथा 'उक्कोण वि साइरेगपुवकोडिएमु उवव०' थी ५९] साति२४- पूटिनी मायुष्यवाणा मसु२ माराम जपन्न थाय छे. 'सेस तं चेव' मा ४थन शिवायनु यीनु प्रश्नोत्तर રૂપ તમામ કથન અહિયાં પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું. જેમકે-એવા તે જીવે ત્યાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે? તે તે પ્રશ્નનો ઉત્તર એ છે કે-એવા તે
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy