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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ स०७ मनुष्येभ्यो नारकाणामुत्पत्यादिकम् ५१३ धिकम् एकं सागरोपमं मासपृथकत्वयुक्तं जघन्यत इत्यर्थः। 'उक्कोसेणं चत्तारि सागरोचमाइं चउहि मासपुहुत्तेहिं अब्भहियाई उत्कर्षेण चत्वारि सागरोपमाणि चतुर्मि मांसपृथक्त्वैरभ्यधिकानि, चतुर्मासपृथक्त्वाधिकचतुःसागरोपमपर्यन्तम् उत्कृष्टत इति। 'एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं यावत् कुर्यात्-एतावत्कालपपन्त मनुष्यगति नारकगतिं च सेवेत तथा एतावदेव कालपर्यन्तं मनुष्यगतौ नारकगतौ च गमना गमने कुर्यात् । इति षष्ठो गमः ६ । 'सो चेव अप्पणा उकोसकालटिइओ जाओ' स एव आत्मनोत्कृष्टकालस्थितिको जातः सन् रत्नपभानरकसंबन्धिनारके पू. त्पन्नो भवेत्तदा 'सो चेव पढमगमओ णेययो' स एप प्रथमो गमको नेव्या , हे भदन्त ! आत्मनोत्कृष्टकालस्थितिको जातो मनुष्यो रत्नपभानारकेषु सागरोपम तक जघन्य से, और चार माप्त पृथक्त्व अधिक चार साग रोपम तक उत्कृष्ट से उस मनुष्य गति का और नरक गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता है। ऐसा यह छट्टा गम हैं,
'सो चेव अपपणा उक्कोलकाल हो जाओ' जो मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति को लेकर उत्पन्न हुआ है और रत्नप्रभा नरक सम्बन्धी नारकों में उत्पन्न होता है, तो यहां पर भी 'सो चेव पढगमओ यच्चों' वही प्रथम गम की वक्तव्यता कह लेनी चाहिये, अर्थात्-गौतमने जब प्रभु से ऐसा पूछा-हे भदन्त ! जो मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट आयु को लेकर उत्पन्न हुआ है और वह यदि रत्नप्रभा के नारकों में उत्पन्न होने के योग्य है तो वह कितने कालकी स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? सागरोवमं मासपुहुत्तममन्भहिय' भास पृथपथी मधि मे सागरी५म सुधा જગન્યથી અને કૃષ્ણથી ચાર માસ પૃથક્વ અધિક ચાર સાગરેપમ સુધી તે મનુષ્ય ગતિનું અને નરક ગતિનું સેવન કરે છે અને એટલા જ કાળ સુધી તેમાં ગમનાગમન કરે છે. એ આ પ્રમાણે આ છઠ્ઠો ગમ છે.
सो चेव अप्पणा उक्कासकालदिइओ जाओ' रे मनुष्य पोते र स्थितिया ઉત્પન્ન થયે છે, અને રત્નપ્રભા નરક પૃથ્વીના નારકમાં ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય छ, त लिया ५५ 'सो चेव पढमगमओ णेयव्वा' ते पडेसा समनु थन કહેવું જોઈએ, અર્થાત્ ગૌતમસ્વામીએ જ્યારે પ્રભુને એવું પૂછયું કે-હે ભગવત્ જે મનુંષ્ય પિતે ઉત્કૃષ્ટ આયુને લઈને ઉત્પન્ન થયેલ છે. અને તે જે રત્નપ્રભા નાકમાં ઉત્પન્ન થવાને ચગ્ય હોય તે તે કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા નૈરયિમાં ઉદન અય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુએ ગૌતમ
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