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________________ भगवतीस्त्र फर्मरजोमलं प्रक्षालयन्ति, प्रक्षाल्य समाराधितज्ञानमार्गाः सिद्धयन्ति, बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सदुःखानामन्नं कुर्वन्ति । 'अत्थेगइया अन्नयरेसु देवलोएसु देवताए उववत्तारो भवंति' अस्त्ये रुके ये कि पदवशिष्टकर्माणस्ते अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तारो भवन्ति । देवलोकाधिकारादेव इदमाह-'कइविहाण' इत्यादि, 'कइविहाण भंते' कति. विधा:-कतिप्रकाराः खलु भदन्त ! 'देवलोया पन्नत्ता' देवलोकाः प्रज्ञप्ताः १ भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चउबिहा देवलोया पनत्ता' चतुर्विधाः-चतुःप्रकारका देवलोकाः प्रज्ञप्ता- कथिताः, देवलोकनिष्ठं चातुर्विहैं, कुरुकुलोत्पन्न क्षत्रिय हैं, वे इस धर्म की आराधना श्रद्धा विश्वास से युक्त होकर करते हैं और आराधना करके कमरजोमल को आत्मा से धोकर अलग कर देते हैं, इस प्रकार कर्मरजोमल के विगम से समाराधित ज्ञानमार्गधाले होकर वे सिद्ध हो जाते हैं, बुद्ध हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं, बिलकुल शीतलीभूत हो जाते हैं, और समस्त दुःखों के अन्तकर्ता बन जाते हैं। सो सय ही ये ऐसे नहीं होते हैं-'अत्थेगड्या अन्नयरेसु देवलोएसु किन्तु इनमें कितनेक ऐसे होते हैं जो अपने कुछ बद्धकर्मों के अवशिष्ट रहने के कारण अन्यतर देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न हो जाते हैं। देवलोक के अधिकार से अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'करविहा णं भंते ! देवलोया पन्नत्ता' हे भदन्त ! देवलोक कितने कहे गये हैं? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चउन्चिहा देवलोया पन्नत्ता' हे गौतम । देवलोक चार प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहा' जो इस प्रकार તેઓ શ્રદ્ધા વિશ્વાસ યુક્ત થઈને આ ધર્મની આરાધના કરે છે, અને આરાધના કરીને કમરૂપી ધૂળરૂપ મળને આત્માથી ધોઈને અલગ કરે છે. આ રીતે કર્મરૂપી રોમળને નાશ થવાથી જ્ઞાનમાર્ગની આરાધના કરીને તેઓ સિદ્ધ થઈ જાય છે, બુદ્ધ થાય છે, મુક્ત થાય છે, બિકુલ શીતિભૂત થઈ જાય છે, અને સઘળા દુઃખના અંતકર્તા બને છે. તે બધા જ એવા દેતા નથી 'अत्थेगइया अन्नयरेसु देवलोएसु०' परंतु तमाम मा मेवा डायछे है, પિતાના કંઈક કર્મો બાકી રહેવાથી બીજા દેવલેકેમાં દેવરૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. દેવલોકના અધિકારથી હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે કે'कइविहा णं भो! देवलोया पण्णत्ता' हे भगवन् पटरी ४ ४ो छ। मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४९ छ है 'गोयमा ! चउन्विहा देवलोया पन्नता'
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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