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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २० उ० ८ १०२ कालिकथुतम्य विच्छेरादिनि० ८१ आराधनं कृत्वा 'अविहं कम्मरयमलं पयोति' विधम्-अष्टप्रकारक कमरूप रजोमल प्रहरन्ति घायबानिभवाभिन्नम्-अष्टप्रकारकं कर्म विनामयन्तीत्यर्थः, 'पवाहिना अपविध कौरनोमान्टम् प्रजाहगिन्या-कर्ममृलं विनाश्य तो पन्ला सिनि' नतः-कर्ममलक्षालनानन्तरं मिध्यन्ति-सिद्रिम्-कान्तिलान्यन्तिकदुम्वनिनिल्पाम् निशीसयम पावाप्नियल्पा मोक्षलक्ष्मीमामादयन्नि जान अंत करेंति' यावदन्तं चतुर्वन्ति यादेन 'युद्ध पन्ने मुचपके परिनिन्ति लाग्यानाम् एतेषां ग्रहणं भवनि, तमा व समापिगमे पोलानमालाय मोक्ष मानुन्नि सर्वदुःखानामन्त शुनित किनिगि मानः । गणमानाद-हना इत्यादि, ना! गोयमा इन्द, गौतम ! 'जे इमे उग्गा गोवा व जाव भी शी से उग्रा भोगा राजन्या इक्षाकदो ज्ञाता। औरच्या अस्थिधर्मे अवगाह से अवग हा अष्टविध पर्मपल को-वाति, अघातिदेह भिन्न आठ प्रकारकों को नष्ट करते हैं-तथा जन आठ प्रकार के कर्मों की लि उड़ाकर बाद में ये क्या ऐकान्ति आत्यन्तिक दाखभिवृत्तिम्प और निरतिशय सुलावाप्तिरूप मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं 'जार अंतं फरेति यावत् थे-पन्न होते है? मुक्त होते हैं ? परिनिर्वात होते हैं ? भीर लवदावों का अन्त मरते है ? अर्थात्-फर्मापगम होने पर वे केवलज्ञान को प्राप्त करके मोक्षको प्राप्त करते हैं और सर्वदुखों का अन्न करते हैं क्या ? इस प्रकार के प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतम ले कहते हैं-'हंता, गोषमा!' हां, गौतम जो ये उग्रकुलोत्पन्न क्षत्रिय है, भोगकुलोत्पन्न क्षत्रिय हैं, राजन्य-राजकुलोस्पन्न क्षत्रिय हैं, इक्ष्वाकु कुलोत्पन्न क्षत्रिय है, ज्ञानकुलोत्पन्न क्षत्रिय पोहंति' मा प्रधान मभगन-ति, ४५ति, विशेष नि मा પ્રકારના કર્મોને નાશ કરે છે, તથા તે અઠે પ્રકારના કર્મોની ધૂળ ઉડાડીને તે પછી તેઓ એકતિક-આત્યંતિક દુઃખનિવૃત્તિરૂપ અને નિતિશય सुभनी प्राति३५ भाभीने पास ५३ छ. 'जाय अंग फरेति यावत् नमा બુદ્ધ થાય છે? મુક્ત થાય છે? પરિનિર્વાન થાય છે? અને સદુપનો અંત કરે છે ? અર્થાત્ કર્મને નાશ થવાથી તે કેવળગાનને પ્રાપ્ત કરીને માને પ્રાપ્ત કરે છે ? અને સર્વ દુઃખે અત કરે છે? આ પ્રકારના भRI Sत्तरमा -सा गोवमा!' गीत ! ! Et. કલનાં ઉત્પન્ન થયેલા ક્ષત્રિય છે, જે કુલ ઉત્પર થયેલા ક્ષત્રિો છે. રાજ કુલમાં ઉત્પન્ન થયેલા કવિ છે, ઈવાલમાં પણ થયેલ કવિ છે, પાતળમાં ઉત્પન્ન થયેલા ક્ષત્રિો છે, કુરૂકુલમાં તત્પર થયેલા ત્રિો છે,
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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