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भगवतीस्त्र 'गोयमा !' हे गौतम ! ‘णो इणढे सम?' नायमर्थः सपर्यः पुनः प्रश्नपति 'से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं बुचइ जाव धम्माधम्मे ठिए' तत् पुनः केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यने यावत् धर्माधर्मे स्थितः धर्मादेरमूर्तत्वेन तत्रोपदेशनासंभवस्तदा केन कारणेन भवता मोज्यते यत् संगतो विरनो धर्म चारित्रात्मके स्थिती यावत् संयतासंयतो धर्माधर्मे स्थितः इति अत्र यावत्पदेन 'संजयविस्यपडिहय' इत्यारभ्य 'संजयासंजये' इत्यन्तस्य सर्वस्य ग्रहणं भवतीति प्रश्नः । उत्तरयति भगवान् गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'संजयविस्य जाव पावकम्मे धम्मे ठिए' संपतविरत यावत् पापकर्मा धर्मे स्थितः 'धम्मं चेव उपसंपज्जित्ता णं विहरइ' धर्ममेव उपसंपद्य खलु विहरति, अत्र यावत्पदेन प्रतिहत मत्याख्यातेत्यस्य संग्रहस्तथा च संपतविरतमतिहतमत्याख्यातपापकर्मा धर्मे स्थित इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! णो इणढे समडे हे गौतम! मैंने जो धर्म अधर्म एवं धर्माधर्म में स्थित होने की बात कही है सो उसका तात्पर्य बैठने या सोने से नहीं है । तो हे भदन्त ! इसका तात्पर्य क्या है ? यही प्रश्न ले फेणं खाहअटेणं भते । एवं घुच्चा, जाव धम्माधम्मे ठिए' इस सूत्र द्वारा गौतम द्वारा पूछा गया है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं -'गोयमा! संजयविरय जाव पावकम्मे धम्मे ठिए' हे गौतम । संयतविरत यावत्-प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा. मनुष्य धर्म में स्थित है । 'धम्म चेव उवसंपज्जित्तो णं विहरह' इसका तात्पर्य ऐसा है कि जो मनुष्य संयत, विरत, प्रतिहतमत्याख्यातपाप. कर्मा है वह धर्म को ही आश्रित करता है धर्म का आश्रय करना यही मेसीश सुश? तना उत्तरमा महावीर प्रभु छ है 'गोयमा ! णो इणदे समटे गौतम! म त मरा॥२ नथी. मेट में यम અધર્મ અને ધર્માધર્મમાં સ્થિત રહેવાની વાત કહી છે. તેનો હેતુ બેસવાથી है सूवामा नथी. श२ गौतम स्वामी पूछ छ में से केणं खाइअटेणं भंते ! एवं बुच्चइ, जाव धम्माधम्मे ठिए' है सपन मा५ ॥ १२था मे ४हे। છે કે તે ધમધર્મમાં સ્થિત છે તેના ઉત્તરમાં મહાવીર પ્રભુ કહે છે કે'गोयमा! संजयविरय जाव पावकम्मे धस्मे ठिए' गौतम ! सयत विरत यावत् प्रतित प्रत्याच्यात मा मनुष्य मा स्थित छ. 'धम्म चेव उवसंपजिताणं विहरइ' ते तात्पर्य के छ रे मनुष्य स यत, विरत प्रतित પ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મમાં છે. તે ધર્મને જ આશ્રય કરે છે. અને ધર્મને माश्रय ४२वा तेनु नाम या स्थित होवु छ. 'धर्मे स्थितः' तना