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________________ भगवतीसूत्रे १६ निरन्तरमपि ज्योतिष्काश्च्यवन्ति, एवं यावत् वैमानिका अपि ।। सु० २ || टीका - ' संतरं भंते ! नेरइया उन्नति, निरंतरं नेरइया उन्बद्वंति ? ' हे भदन्त ! सान्तरस् अन्तरेण व्यवधानेन सहितं यथा स्यात्तयेति सान्तरं समयादि कालापेक्षया सविच्छेदम् उद्वर्तना क्रियाविशेषणमेतत्, तथा च व्यवधानपूर्वकं नैरयिका उद्वर्तन्ते निस्सरन्ति किम् ? किं वा निरन्तरं विच्छेदरहितं सततं भी जानना चाहिये । ( संतरं भंते! जोइसिया चयंति पुच्छा ) हे भदन्त ! ज्योतिषिक देव सान्तर निकलते हैं या निरंतर निकलते हैं ? (गंगेया) हे गांगेय ! ( संतरंपि जोइसिया चयंति, एवं जाव वैमाणिया वि) ज्योतिषिक देव सान्तर भी निकलते हैं और निरंतर भी निकलते हैं । इसी तरह का कथन यावत् वैमानिकों तक में जानना चाहिये । टीकार्थ - उत्पन्न जीवों की ही उद्वर्तना होती है-इसलिये सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इसी उद्वर्तना की प्ररूपणा की है - इसमें गांगेयने प्रभु से ऐसा पूछा है - ( संतरं भंते ! नेरइया उव्वर्वृति, निरंतरं नेरइया उच्चहंति ) समयादिरूप काल की अपेक्षा लेकर जिस निष्क्रमण में व्यवधान अन्तराल होता है - वह निष्क्रमण सान्तर है और जिसमें ऐसा व्यवधान नहीं होता है वह निष्क्रमण निरन्तर है। सान्तर और निरन्तर ये दोनों निष्क्रमणरूप क्रिया के विशेषण हैं। तात्पर्य पूछने का ऐसा है कि नरक से नारक जीव जो निकलते हैं वे क्या वहां से विना काल के व्यवधान के निकलते हैं या उनके निकलने में काल का व्यवधान भी सम (सतर भंते! जोइसिया चयति पुच्छा ) हे लहन्त ! ज्योतिषि हेवे। सान्तर भ्यवे (नीउणे ) हे } निरंतर भ्यवे ( नाडणे ) है ! ( ग गया ! ) ३. गांगेय ! सतरपि जोइसिया चयंति, निरंतरपि चयंति, एवं जॉव वेमाणिया वि) क्योतिषि देवा सान्तर । न्यवे छे भने निरंतर पशु स्यवे छे. એજ પ્રકારનું કથન વૈમાનિક પર્યન્તના જીવાના ચ્યવન વિષે પણ સમજવું. ટીકા—જે જીવા ઉત્પન્ન થાય છે તેમની ઉદ્વૈતના ( તે ગતિમાંથી નીકળવાની ક્રિયા) પશુ થાય જ છે. તેથી ઉત્પત્તિનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્ર કાર તેમની ઉદ્ભનાનું નિરૂપણ કરે છે—આ વિષયને અનુલક્ષીને ગાંગેય અણુ. गार महावीर अलुने पूछे छे है.... ( स ंतरं भते ! नेरइया उव्वट्टति, निरंतर नेरइया चट्टति १) हे लहन्त ! नरम्भांथी ने नार व नीम्जे छे ते शु ઢાળના વ્યવધાન સહિત નીકળે છે કે કાળના વ્યવધાન વિના નીકળે છે?
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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