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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श० ९ ० ५२०१ उद्वर्तनानिरूपणम् काइया उववज्जति, निरंतरं पुढविक्काइया उववज्जंति ' हे गाङ्गेय ! नो सान्तरं सविच्छेदं पृथिवीकायिका उत्पद्यन्ते, अपितु निरन्तरमेव पृथिवीकायिका उत्पद्यन्ते ' एवं जाव. वणस्सइकाइया' एवं पृथिवीकायिकवदेव यावत् - अकायिक-तेजस्कायिक- वायुकायिक-वनस्पतिकायिका अपि सान्तरं सविच्छेदं नोपपद्यन्ते, अपितु निरन्तरमविच्छेदमेव ते उपपद्यन्ते । ' वेइंदिया जाव वैमाणिया, एए जहा नेरइया' एवमेव द्वीन्द्रियाः यावत्-त्रीन्द्रिय-- चतुरिन्द्रिय-- पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकमनुष्य - वानव्यन्तर- ज्योतिष्का वैमानिकाच एते यथा नैरयिकाः सान्तरमपि, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते तथैव सान्तरं निरन्तरं चोत्पद्यन्ते ॥ सू० १ ॥ उद्वर्त्तनावक्तव्यता । अयोत्पन्नानां च सतामुद्वर्तना भवतीत्यतस्तामुद्वर्तनां निस्सरणरूपां प्ररूपयितुमाह - ' संतरं भंते ' इत्यादि । मूळम् --संतरं भंते ! नेरइया उद्वहंति, निरंतरं नेरइया उब्वद्वंति ? गंगेया ! संतरंपि नेरइया उव्वहंति, निरंतरंपि पुढविक्काइया उववज्र्ज्जति) पृथिवीकायिक जीव सान्तर - कालादिक के व्यवधान से उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु वे तो निरन्तर - कालादिक के अव्यवधान से ही उत्पन्न होते हैं ( एवं जाव वणस्संइकाइया ) पृथिवीकायिक की तरह ही यावत्-अप्रकायिक जीव, तेजस्कायिक जीव, वायुकायिक जीव, और वनस्पतिकायिक जीव, भी निरन्तर उत्पन्न होते हैं । (बेइंदिया जाव वेमाणिया-एए जहा नेरइया) वे इन्द्रिय जीव, तेइन्द्रिय जीव, चौइन्द्रिय जीव, पंचेन्द्रियतियेच, मनुष्य, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये सब भी निरन्तर और सान्तर रूप से दोनों प्रकार की उत्पत्ति वाले होते हैं-अर्थात् ये सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं || सु०१ ॥ सान्तराजाहिना व्यवधानथी उत्पन्न थाय छे ( एवं जाव वणस्सइकाइया) પૃથ્વીકાયિક જીવાની જેમ અપ્રિયક, વાયુાયિક, તેજસ્કાયિક અને વનસ્પતિ अथ वा पशु निरन्तर उत्पन्न थया उरे छे. ( बेईं दिया जाव वैमाणिया-प ए जहा नेरइया) छान्द्रय छ, तेहन्द्रिय छवी, अतुरिन्द्रिय वो, पथे. ન્દ્રિય તિય ચા, મનુષ્યા, વાનભ્યન્તરા, ચૈતિક દેવા અને વૈમાનિક દેવાની ઉત્પત્તિનું' કથન નારકાની ઉત્પત્તિના કથન પ્રમાણે સમજવુ'. એટલે કે તેએ સાન્તર પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને નિરન્તર પશુ ઉત્પન્ન થાય છે. શાસ્॰૧માં
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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