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________________ प्रमैयन्द्रिका टीका श०२ उ०३२ सू०१ गांगेयानगारवक्तव्यता नरयिका उपपद्यन्ते जायन्ते, तथा च यस्यामुत्पत्तौ समयादिकालस्य अन्तरं व्यवधानं भवति सा सान्तरा उत्पत्तिरभिधीयते, तौकेन्द्रियाणां प्रतिसमयमुत्पद्यमानत्वात् तेषां सान्तरा उत्पत्ति स्ति, अपितु निरन्तरैवोत्पत्तिरस्ति, एकेन्द्रियान् वर्जयित्वा तदन्येषां जीवानामुत्पत्तौ तु व्यवधानलक्षणमन्तरमपि भवति, अतस्ते सान्तरत्वेन निरन्तरत्वेन चोभयप्रकारेणैव उत्पद्यन्ते इति फलितम् , अथ भवनपतिविषये तदेव प्रश्नोत्तरेण विशदयति-'संतरं भंते! असुरकुमारा उबवज्जति ? निरंतरं अमुरकुमारा उववज्जति ? ' गाङ्गेयः पृच्छति-हे भदन्त ! किं सान्वरं समयादिकालापेक्षया सव्यवधानम् असुरकुमारा उपपद्यन्ते ? किं वा निरन्तरं समयादिकालापेक्षया व्यवधानरहितं सततम् अमुरकुमारा उपपद्यन्ते ? भगवानाइ-'गंगेया ! संतरंपि असुरकुमारा उववनंति, निरतरंपि असुरकुमारा उववज्जति ' हे गाङ्गेय ! सान्तएकेन्द्रिय जीवों की जो उत्पत्ति होती है-वह सान्तर नहीं होती हैक्यों कि उत्पत्ति में विरह होता नहीं है-प्रतिसमय इनकी उत्पत्ति होती ही रहती है-अतः इनकी उत्पत्ति निरन्तर होती है तथा अन्य - जीवों की उत्पत्ति में काल का व्यवधान भी होता है और व्यवधान नहीं भी होता है-इसी अभिप्राय को लेकर प्रभु ने ऐसा कहा है कि नैरयिक जीवों की उत्पत्ति सान्तर भी होती है और निरन्तर भी होती है। अब गांगेय प्रभु से विस्तार के साथ ऐसा पूछते हैं-(संतरं भंते ! असुरकुमारा उववज्जति, निरंतरं असुरकुमारा उववज्जंति) हे भदन्त! असुरकुमारों की उत्पत्ति सान्तर-जिसमें काल का व्यवधान हो-ऐसी होती है या जिसमें काल का व्यवधान न हो-ऐसी निरन्तर होती है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गंगेथा ) हे गाङ्गेय ! (संतरंपि असुरઉત્પન્ન થાય છે. એકેન્દ્રિય જીવોની જે ઉત્પત્તિ થાય છે તે સાન્તર થતી નથી–કારણ કે ઉત્પત્તિમાં વિરહ હતું જ નથી. પ્રતિસમયે તેમની ઉત્પત્તિ થતી જ રહે છે, તેથી તેની ઉત્પત્તિ નિરંતર ( લગાતાર) થયા જ કરે છે. અન્ય જીવની ઉત્પત્તિમાં કાળને આંતરો પડે છે પણ ખરે અને નથી પણ પડતો. તેથી જ પ્રભુએ એવું કહ્યું છે કે નારકની ઉત્પત્તિ સાંતર પણ હોય હોય છે અને નિરંતર પણ હોય છે, गेय मारने प्रश्न--( सतर' भंते ! असुरकुमारा उववज्जति, निरंतर असुरकुमारा उबवज्जति १) डे महन्त ! असु२भारानी उत्पत्ति सन्तर (કાળના આંતરાવાળી) હોય છે કે નિરંતર (કાળના આંતરા વિનાની) હોય છે? महावीर प्रभुन। त्तर---" गंगेया ! " सांगेय ! ( सतरपि असुरकुमारा
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
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