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सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'बुद्धाणं' बुद्धानां-ज्ञातपरमार्थानामाचार्याणाम् 'अंतिए' अन्तिके-समीपे वसन् 'आयरियाई आर्याणि-आयर्याणां कर्तव्यानि-सम्यग्दर्शनचारित्ररूपाणि, 'सिक्खेना' शिक्षेत-अभ्यसेव-गुरूपदिष्टान् । अनेन सदैव गुरुकुले वासो ध्वनितः ॥३२॥
बुद्धानामन्तिके वसन् शिक्षेत-तदेव कथयति-'सुस्मुसमाणो' इत्यादि । मूलम्-सुस्सूसमाणो उबालोजा, सुवन्नं सुतवस्लियं ।
वीरों जे अत्तपन्नेसी, धिहमंता जिइंदिया ॥३३॥ छाया-शुश्रूमाण उपासीत, छुप्रज्ञं सुतपस्विनम् ।
चीरा ये आप्तमपिणो, धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः ॥३३॥ , साधुको सदैव परमार्थ के ज्ञाता आचार्योंके समीप में निवास करते हुए आर्यकर्त्तव्यों की अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की शिक्षा लेनी चाहिए। इस कथन के द्वारा यह सूचित किया गया है कि साधु को सदा गुरुकुलवास करना चाहिए। ऐसा विवेक कहा गया है। ॥३२॥
ज्ञानियों के समीप बसता हुआ सीखे, यही कहते हैं-'सुस्लू०' इत्यादि । - शब्दार्थ--'सुपन्नं सुतवस्सियं-सुप्रज्ञं सुतपस्विनम्' अपने और दूसरे के सिद्धांतों को जाननेवाले उत्तम तपस्वी गुरु की 'सुस्लूसमाणो उधासेज्जा-सुश्रूषमाणः उपासीत' शुश्रूषा करता हुआ सोधु उपासना करे 'जे वीरा-ये वीरा' जो पुरुष कर्मको विदारण करने में समर्थ है 'अत्तपन्नेसी-आप्तप्रज्ञैषिणः' तथा रागद्वेष रहित पुरुष की जो केवल
* સાધુએ સદા સર્વદા પરમાર્થને જાણનાર એવા આચાર્યોની પાસે નિવાસ કરતા થકા આર્યના કર્તવ્યની અર્થાત્ સમ્યફ દર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્રની શિક્ષા લેવી જોઈએ, આ કથનથી એ સૂચવવામાં આવેલ છે કે–સાધુ સદા ગુરૂકુળમાં વાસ કરે જોઈએ. આ પ્રમાણેને વિવેક બતાવેલ છે. ૩૨
જ્ઞાનની પાસે રહીને જ્ઞાનને અભ્યાસ કરે એ બતાવવા કહે છે કે'सुरसूसमाणो त्या
Avalथ---'सुपन्न सुतवस्सिय-सुप्रज्ञ सुतपस्विनम्' पाना तथा अन्य भतामियाना सिद्धांताने Mp4 Sत्तम त५२वी सेवा शु३नी 'सुस्सूसमाणो-सुश्रूषमाणः' Bासना अर्थात् सेवा ४२ता थ! तभनी उपासना ४रे, 'जे वीरा-ये वीराः' २ ५३५ मन विहाय ४२वामी समर्थ छे तथा 'अत्त पन्नेसी-आप्तप्रज्ञैषिणः' रागद्वेष २हित ५३पनी २ विज्ञान३५ प्रज्ञा छ,