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________________ माधारास्त्रे देवादितिनाप्यनन्तरं संख्याने सागराग्नेषु जारितेषु सर्वपिरतिचारित्रं लभने । तदनन्तरनपि संख्या सागपनेषु झपिन पानश्रेणि प्रतिपद्यते । ततोऽपि मंख्याने सागरोपमेषु अपितेयु सपनवेनिर्भवति । ततस्तलिन्नेव नरे नोक्ष इति । एवं यन्य सन्यासनप्रनिपनि तवैव देवमनुष्यनवेषु संसरणं कुर्वनो देशावित्यादिलानो भवति । सन्यक्त्वं दिअनन्नानन्द-रूपानुपन नोभतुखस्य कारणम् । उक्तल "जात्यन्यस्य यथा पुंसवनुमाने शुभाइये । सदर्शनं तयवान्य, सन्यस्वे सति जायते ! १ !! आनन्दो जायतेऽत्यन्तं. सानिकोऽत्य महात्मनः। सहाव्युगिने यद् व्याक्तिन्य सज्ञवधम् ॥ ॥ २॥ इति । वीचोल्लान ले झप्ति हो जावे नव देशविरनिका लाभ होता है। देशविरति-श्रावतचारित्र-पंचन गुस्थान की प्रातिके अनलर संख्या सागरप्रनाग स्थितिले क्षय होने पर सर्वदिरति-मुनिवन-पष्ठगुणस्थानकी प्राप्ति होती है। इसके बाद संख्यातसागरममाण स्थितिके व्यतीत हो जानेपर उपशमणि और फिर संख्यातसागरप्रमाणत्यिति के क्षय होने पर क्षपकणिका लान होता है। फिर उसी भवसे उसको नुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है। देशविरति आदि चारित्रका लाभ उसी जीवके होता है कि जिसने अपने सन्यक्त्व की विराधनादेव मनुष्यभवाने रहते हुए नहीं की है। अर्थात् देवपर्याय में या ननुष्यपर्याय में जिसके सन्यक्त्वकी विराधना हो गई है उत्त जीवके देशविरति आदि चारित्र का लाभ नहीं होता। यह सन्यक्त्व अनन्तानन्दरूप अनुपन मोक्षसुखका कारण है। जैसे कहा हैત્યારે દેશરિરી. ૯ , કે. દેશરિરતિ–...વરાત્રિ પર ગુરુની સિન્ડ છે વાતાવરપ્રા. દિને ય રા વિવિनुन्निन- . या प्रति ५५ . २.२ २.२ मा. श्री . ना . वितिने... ५.. ..... . - यो देने मी ५ . अविकत्रित ६ ते ७५ ६ ३ २६... न्य५नी दि. ३ नयन ने नया ४२. यो-३ - २ अनुभ-यय- रेने न्यानो वि.५. लेकिन ने ते ३. ॐ ॐ ॐन :
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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