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________________ ४२६ ४२७ विषय पृष्ठाङ्क १५ आठवा सूत्र । ४२४ १६ इन अन्यवधादिकों का सेवन करके भरतादि-जैसे कोई २ इन्हें निस्सार समझ कर संयमाराधन में तत्पर हुए हैं। इसलिये इनको निस्सार समझ कर ज्ञानी इनका सेवन नहीं करे। ४२४-४२५ १७ नवम सूत्रका अवतरण और नवम मूत्र । ४२५ १८ देव भी जन्ममरणशील होते हैं; इसलिये उनके सुख को भी नश्वर समझ कर श्रुतचारित्रधर्मका सेवन करो। १९ दशम मूत्र । ४२७ २० श्रुतचारित्र धर्म के आराधनमें तत्पर मुनि किसी की हिंसा न करे, न दूसरों से हिंसा करावे और न हिंसा करनेवाले की अनु मोदना ही करे। २१ ग्यारहवा सूत्र का अवतरण और ग्यारहवा सूत्र । ४२७ २२ स्त्रियों में अनासक्त, सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्रके आराधन में तत्पर तथा पाप के कारणभूत कौँ से निवृत्त मुनि वैषयिक सुख की जुगुप्सा करे। ४२७-४२८ २३ बारहवा सूत्र। ४२९ २४ क्रोधादि का नाश करे, लोभ का फल नरक समझे, प्राणियों की हिंसा से निवृत्त रहे, मोक्ष की अभिलाषा से कर्मों के कारणों को दूर करे। ४२९-४३० २५ तेरहवा सूत्र। ४३१ २६ इस संसारमें समय की प्रतीक्षा न करते हुए तत्काल ही बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थिको जान कर परित्याग करे; स्रोत को जान कर संयमाचरण करे, इस दुर्लभ नरदेहको पाकर किसी की भी हिंसा न करे। उद्देशसमाप्ति ।। ४३१-४३३ ॥ इति द्वितीयोदेशः॥
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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