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________________ ५२ विषय ६ अज्ञ मनुष्य मनोविनोद के निमित्त प्राणियों का संहार कर आनंद मानता है | बालों - अज्ञों का संग व्यर्थ है । उनके संग से तो द्वेषी ही वृद्धि होती है । ४११-४१२ ४१३ ७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र । ८ बालों के संगसे द्वेप ही वढता हैं; इस हेतु अतिविद्य - सम्यज्ञानवान् प्राणी परम की, अर्थात् - सिद्धिगति नामक स्थान की अथवा सर्वविरतिरूप चारित्र की सत्ता को जान कर, नरकनिगोदादिके विविध दुःखोंके ज्ञान से युक्त हो, पापानुबन्धी कर्म नहीं करता है, न दूसरों से कराता है, न करनेवाले का अनुमोदन ही करता है । वह धीर मुनि, अग्र और मूलका विवेक कर के, कर्मों का छेदन कर निष्कर्मदर्शी हो जाता है । ९ पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र । १० यह निष्कर्मदर्शी मरण से मुक्त हो जाता है, केवली होकर दूसरों को भी मुक्त करता है । इहलोकादि भय को देखनेवाला यही मुनि कहलाता है | मुनि परमदर्शी, विविक्तजीवी और उपशान्त आदि हो कर, पण्डितमरणकी आकाङ्क्षा करता हुआ संयमाराधनमें तत्पर रहे । पृष्ठाङ्क ४१३–४१५ ४१६ ४१६-४१८ ४१८ ११ छठा सूत्र । १२ पापकर्म बहुत प्रकारके कहे गये हैं, उनको दूर करनेके लिये संयम में धृति धरो । संयमपरायण मेधावी मुनि समस्त पाप कर्मोंका क्षपण करता है । ४१८-४१९ ४१९-४२० १३ सातवाँ सूत्रका अवतरण और सातवा सूत्र | १४ अनेक विषयों में आसक्तचित्त संसारी पुरुषों की इच्छाकी पूर्ति नहीं होती। ऐसे पुरुष अन्यवधादिरूप पापकर्मों में ही निरत रहते हैं । ४२०-४२४
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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