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विषय
पृष्ठाङ्क
१९ ज्ञाननेत्रयुक्त मुनिका वर्णन ।
२९९-३०७ २० दशम भूत्रका अवतरण और दशम मूत्र ।
३०७ २१ साधुको कामभोगागासे युक्त नहीं होना चाहिये; क्यों कि
कामभोगाशासे युक्त साधु बहुमायी हो कर लोभ और वैर वढानेवाला होता है। वह अपनेको अमर समझता है, इष्ट-विनाश
आदि कारण से वह उच्च स्वर से रुदन करता है। ३०८-३१३ २२ ग्यारहवां मूत्रका अवतरण और ग्यारहवां मूत्र ।
३१३ २३ वाल-अज्ञानी परतैर्थिक कामभोगस्पृहाकी चिकित्सा कामभोग
सेवनही कहते हैं। इसलिये वे हननादिक क्रियासे युक्त होते हैं। परन्तु अनगार ऐसे नहीं होते हैं । उद्देश-समाप्ति । ३१४-३१८
॥ इति पञ्चमोद्देशः ॥
॥ अथ षष्टोद्देशः॥ १ पञ्चम उद्देशके साथ षष्ठ उद्देशका सम्बन्धप्रतिपादन । २ प्रथम मत्रका अवतरण और प्रथम मूत्र। ३ पड्जीवनिकाय के उपघातका उपदेश नहीं देनेवाले अनगार कभी भी पापाचरण नहीं करते।
३२०-३२१ ४ द्वितीय मुत्र का अवतरण और द्वितीय सत्र ।
३२१ ५ जो छ जीवनिकायों या छ व्रतों में से किसी एक की विराधना
करता है वह छही की विराधना करता है। सुखार्थी वह वाचाल होता है, और अपने दुःखसे मूढ हो वह सुख के बदले दुःख ही पाता है। वह अपने विप्रमादसे अपने व्रतों को विपरीत प्रकार से करता है, अथवा वह अपने संसारको बढाता है, या एकेन्द्रियादिरूप अवस्था को प्राप्त करता है। इसलिये चाहिये कि प्राणियों को जिनसे दुःख हो ऐसे दुःखजनक कर्मों का आचरण नहीं करे । इस प्रकार के कर्मों के अनाचरण से कर्मोपशान्ति होती है।
३२२-३३१