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विषय
६ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
७ ममत्वबुद्धि से रहित हो मनुष्य रत्नत्रययुक्त अनगार होता है । ३३२-३३४
८ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ मत्र ।
३३४
१ मेधावी मुनि ममत्वबुद्धिको छोड़कर, लोकस्वरूप को जानकर आहारादिमूर्च्छारूप संज्ञा से रहित हो संयमानुष्ठान में पराक्रम करे ।
पृष्ठाङ्क
३३४-३३६
३३६
१५ दुर्वसु मुनि भगवानकी आज्ञाका विराधक हो कर तुच्छता एवं ग्लानिको प्राप्त करता है, और भगवान्की आज्ञाका आराधक सुत्र मुनि तुच्छता एवं ग्लानि को नहीं पाते हैं और तीर्थङ्कर गणधर आदि से प्रशंसित होते हैं । यह सुवसु मुनि लोकसंयोग से रहित हो मुक्तिगामी होते हैं ।
३३२
१० पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम मंत्र |
११ कर्मविदारण करनेमें समर्थ, पुत्रकलत्रादिको त्यागनेवाले वीर चारित्रविषयक अरति और शब्दादिविषयक रतिको दूर कर देते हैं; क्योंकि वे अनासक्त होते हैं; अत एव वे शब्दादिविषयों में रागयुक्त नहीं होते ।
१२ छठे मूत्रका अवतरण और छठा सूत्र ।
१३ सुनि इष्टानिष्ट शब्दादि विषयों में रागद्वेप न करता हुआ असंयमजीवन सम्बन्धी प्रमोदको दूर करे, मौन ग्रहणकर कर्मक्षपण करे । सम्यक्त्वदर्शी वीर मुनि प्रान्त और रूक्ष अन्न सेवन करते हैं । प्रान्त - रूक्ष अन्न सेवन करनेवाले मुनि कर्मका विनाश कर ओघन्तर, तीर्ण और मुक्त होते हैं। ऐसे ही मुनि विरत कहलाते है । ३३८ - ३४३
१४ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवां सूत्र |
३४३
१६ आठवें सूत्रका अवतरण और आठवी सूत्र | १७ शारीरिक-मानसिक दुःखजनक कर्मों का जहां जिस प्रकार से बन्ध होता है, मोक्ष होता है, और विपाक होता है । उन सबों
३३७
३३८
३४३-३४७
३४७