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विषय
१७ पश्यक - तीर्थकर गणधर आदि नरकादि गतिके भागी नहीं
होते हैं, बाल- अज्ञानी जीव तो नरक आदि गति के भागी ही निरन्तर होते रहते हैं—इसका प्रतिपादन और उद्देश- समाप्ति । २२७-२३५
॥ इति तृतीयोदेशः ॥
॥ अथ चतुर्थोद्देशः ||
१ तृतीय उद्देश के साथ चतुर्थ उद्देशका सम्बन्धप्रतिपादन | २ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र ।
३ वृद्धावस्था में ही श्वासकासादि रोग होते हों, ऐसी बात नहीं ! ये तो युवावस्था में भी होते हैं । उस रोगावस्था में उस प्राणी का रक्षक कोई सगा -सम्बन्धी नहीं होता है, और न वही प्राणी उस रोगावस्था से आक्रान्त अपने सगे-सम्बन्धीका रक्षक हो सकता है ।
४ द्वितीय सूत्रका अवतरण और द्वितीय सूत्र ।
५ भोगसाधन धनकी विनाशशीलताका वर्णन |
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पृष्ठाङ्क
२३६
२३७-२३८
६ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
७ भोगसाधन धन विनश्वर है; अतः भोगकी स्पृहा और भोगके विचार का भी परित्याग कर देना चाहिये ।
८ चौथे सूत्रका अवतरण और चौथा मूत्र ।
९' कामभोग का आसेवन महा भयस्थान है ' ऐसा जानकर अनगार क्या करे ? इसका उपदेश तथा उद्देश- समाप्ति ।
॥ इति चतुर्थोद्देशः ॥
२३८-२४०
२४१ २४१-२४२
२४२-२४३
२४३-२५५
२५६
२५६-२६१