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आचाराङ्गसूत्रे वीराः परीपहोपसर्गसहनसमर्था मुनयः, प्रान्तं द्रव्यतः रवाभाविकरसरहितं शीतलपुराणकुलत्थादिकं स्तोकं वा, रूक्षेन्द्रव्यत आगन्तुकघृतादिरसवर्जितं, भावतः प्रान्तं द्वेपविकलं धूमदोपवर्जितम् , भावतो रुक्षम् रागरहितमगारदोपवर्जितमाहारं च सेवन्ते अश्नन्ति। यश्च प्रान्तरूक्षभोजी स किमाप्नोतीत्याह-' एप' इति, एप परिशुद्धनान्तरूक्षाहारसेवनेन कर्मशरीरं धुन्वानो मुनिः अनगारः, 'ओघन्तरः' दर्शिनः" लिखी है। प्रान्त और रूक्ष, द्रव्य तथा भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं, उनमें द्रव्यप्रान्त स्वाभाविकरसवर्जित ठंढा पुराना कुलत्थ आदि, तथा प्रमाण में थोडा । भावप्रान्त देवरहित धूमदोषवर्जित। द्रव्यरुक्ष-घृत आदि रसवर्जित, और भावरुक्ष-रागरहित अङ्गारदोपवर्जित आहार । मुनि इस प्रकार का आहार करते हैं। इस प्रकार के माहार को अपने उपयोग में लेनेवाला अनगार कर्मशरीर क्षीण करता हुवा 'ओघन्तरः' संसाररूपी भाव ओघको "कडेमाणे कडे" इस वाक्य के अनुसार पार करने वाला हो जाता है। यद्यपि संसाररूपी समुद्र को अभी उसने पार नहीं किया है परन्तु पार करनेरूप क्रिया अभी उसकी चालू है--पार करने के सन्मुख हो रहा है, भविष्य में उसे पार करेगा फिर भी सूत्र में "तिण्णे-तीर्णः" जो इस भूतकृदन्त का प्रयोग किया गया है वह "क्रियमाणं कृतं" इस वाक्य के अनुसार किया हुआ समझना चाहिये । जैसे किसी कार्य की समाप्ति अभी हुई नहीं है, समाप्ति की ओर वह अग्रसर हो रहा है और भविष्य में पार होगा; परन्तु व्यवहार में ભાવ ભેદથી બે પ્રકારે છે તેમાં દ્રવ્યપ્રાંત-સ્વભાવિક રસવર્જિત ઠડા પુરાણા કુલ– આદિ, તથા પ્રમાણમાં થોડુ ભાવપ્રાન્ત–ષરહિત–દેષરહિત, દ્રવ્યરૂક્ષ–ધી આદિ રસ વર્જિત, અને ભાવરૂક્ષ-રાગરહિત અંગારેષવર્જિત આહાર, મુની આવા પ્રકારને આહાર કરે છે. આવા પ્રકારના આહારને પિતાના ઉપયોગમાં લાવવાવાળા અણગારકર્મशरीरने क्षीए सरीन "ओघन्तर" स सा२३पी माप साधने "कडेमाणे कडे” २ वाध्य અનુસાર પારકરવાવાળા થઈ જાય છે, જે કે સંસારરૂપી સમુદ્રને હજુ તેમણે ઓળગેલ નથી પરંતુ એળ ગવારૂપ કિયા હજુ તેમની ચાલ છે. ઓળંગવા માટે સન્મુખ यता तय थे. लविष्यमा तेनो पा२ ४२ त ५५ सूत्रमा “तिण्णे-तीर्ण." ? सा भूत पृतना उपयोग या छे ते “क्रियमाणं कृतं" ॥ पास्य अनुभार કરેલુ સમજવું જોઈએ. જેમ કેઈ કાર્યની સમાપ્તિ હજુ થયેલ નથી પણ સમામિના માર્ગ ઉપર છે અને ભવિષ્યમાં સમાપ્ત કરશે, પણ વ્યવહારમાં તે “થઈ ગયેલ