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अध्य० २. उ. ५
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मुचितम्, यतश्चानुकूले वस्तुनि रागः प्रतिकूले द्वेषश्च सज्जायते, एवञ्च रागद्वेषयोरवश्यंभावान्मूर्च्छा, सैपा परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो बुत्तो' इति वचनात्, तत्सद्भावे च कर्मबन्ध इति कथं संयमोपकरणस्य न परिग्रहत्वमिति चेदुच्यते - धर्मोपकरणे मुनीनां ' ममेद ' - मिति न मोहो भवति । उक्तञ्च
CC अवि अपणोऽवि देहम नायरंति ममाइयं " इति । (दश. अ. ६ गा. २२) ठीक नहीं है, कारण कि यह भी परिग्रह ही है, और परिग्रह का त्याग किये विना सर्वथा संयमाराधकता होती नहीं है । परिग्रहरूपता इनमें इसलिये है कि अनुकूल इनकी प्राप्ति में प्राप्तकर्ता को हर्ष, और प्रतिकूल प्राप्ति में पानेवाले को देव होता है। जहां पर राग और द्वेष है वहां पर मूर्छा है, और मूर्छा का होना ही परिग्रह है । "मुच्छा परिग्गहो वृत्तो" मूर्छा ही परिग्रह है, ऐसा भगवान का कथन है, जहां इसका सद्भाव है वहां कर्मबन्ध अवश्य है, अतः वस्त्रपात्रादिक उपकरण को परिग्रह क्यों नहीं कहा गया है ? |
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उत्तर-- सामान्यतया वस्त्रपात्रादिकों में परिग्रहता का हम निषेध नहीं करते हैं, किन्तु जो संयम के उपकारक हैं वे परिग्रहरूप नहीं है । यह एक विशेष विधि है, कारण कि मुनियों को उनमें " मम इदं " " मेरे हैं' इस प्रकार की ममत्वभावरूप मूर्छा नहीं होती है। कहा भी है"अवि अप्पणोवि देहंमि, नायरंति ममाइयं" इति । (दश. अ. ६ गा. २२) કારણ તે પણ પરિગ્રહ જ છે. અને પરિગ્રહના ત્યાગ કર્યા વિના સથા સંચમારાધકતા થતી નથી. પરિગ્રહરૂપતા તેમાં એ માટે છે કે અનુકૂળ તેની પ્રાપ્તિમાં પ્રાપ્તકર્તા ને હર્ષ અને પ્રતિકૂળ પ્રાપ્તિમાં લેનારને દ્વેષ થાય છે, જે જગ્યાએ રાગ અને દ્વેષ છે ત્યાં મૂર્છા છે, અને મૂર્છાનુ` હાવું તે પરિગ્રહ છે. “ मुच्छा परिहो बुत्तो" भूर्छा से परियड छे, मेवु लगवाननु थन छे, न्न्यां तेना સદ્ભાવ છે ત્યાં કાઁખધ અવશ્ય છે, માટે વજ્રપાત્રાદિક કેમ માનેલ નથી ?
ઉપકરણને પરિગ્રહ
ઉત્તર—સામાન્ય રીતે વજ્રપાત્રાદિકામાં પરિમહતાના અમે નિષેધ કરતા નથી, જે સંયમના ઉપકારક છે તે પરિગ્રહરૂપ નથી. એ એક વિશેષ વિધિ છે, अर भुनियाने तेभां " मम इदं " से भाग छे से प्राश्नी भभत्य लावय મૂર્છા થતી નથી. કહ્યુ પણ છે—
'अवि अपणो विदेहमि नायरंति ममाइय "fa (821. 24. 8 31. 22)
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