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________________ - अध्य० २. उ. ३ २८५ . मुनिर्मात्रयैवाहारादिकं गृह्णीयात्, लाभालाभादौ च मध्यस्थतामवलम्बेतेति दर्शयति- लद्धे' इत्यादि। मूलम्-लद्धे आहारे अणगारो मायं जाणिज्जा से जहेयं भगवया पवेइयं लाभुत्ति न मजिज्जा, अलाभुत्ति न सोइजा वहुंपि लद्धं न निहे परिग्गहाओ अप्पाणं अवसकिज्जा अन्नहाण पासए परिहरिज्जा ॥ सू०६॥ ___ छाया-लब्धे आहारेऽनगारो मात्रां जानीयात् , तद्यथेदं भगवता प्रवेदितम् , लाभ इति न मायेत, अलाभ इति न शोचेत् , बदपि लब्ध्वा न स्निह्यात् , परिग्रहादात्मानमवप्वप्केत् , अन्यथानपश्यकः परिहरेत् ॥ मू० ६॥ टीका—'लब्धे' इत्यादि। अनगारः-मुनिः, लब्धे-सम्प्राप्ते आहारे उपलक्षणादन्यस्मिन्नपि वस्त्रपात्रशय्यासंस्तारकादावधिगते सति ' मात्रा ' यावद्ग्रहणेन विछौना-विस्तर समझना चाहिये । अनगार इन समस्त एपणीय वस्तुओं की ही गृहस्थों से याचना करे, अनेपणीयों की नहीं ॥ सू० ५॥ अनगार मात्राप्रमाण ही आहारादिकों को लेवे। उनके लाभ और अलाभ में मध्यस्थ भाव रखे, इस बात को सूत्रकार कहते हैं-'लद्धे आहारे' इत्यादि। इस सूत्र में 'आहार' यह शब्द उपलक्षण है, इससे बन्द्र, पात्र, शय्या, संस्तारक आदि का भी ग्रहण हो जाता है। आहार एवं वस्त्रादिक वस्तुओं को गृहस्थ के पास उतनी ही मात्रा में बोरना चाहिये कि जिससे वौराने वाले गृहस्थ को दुवारा आरंभ नहीं करना पड़े। तथा इतनी ही लेनी चाहिये कि जिनके लेने से अपनी संयमयात्रा का જોઈએ. અણગાર આ સમસ્ત એષણય વસ્તુઓની ગૃહસ્થોથી યાચના કરે, અનેવીની નહિ. એ સૂ૦ ૫ છે અણગાર માત્રાપ્રમાણથી આહારાદિ લે, તેના લાભ–અલાભમાં મધ્ય ला राणे, २५! वातने सूत्र२ -लद्धे आहारे त्यादि. सूत्रमा २' श६ ५सक्षए छ. तनाथी परव, पात्र, शय्या, સસ્તારક આદિનું વડુ થાય છે. આહાર અને વસ્ત્રાદિક વસ્તુઓને ગ્રાહકોને પાસેથી એટલી માત્રામાં લેવી જોઈએ કે જેનાથી દેવાવાળા ગૃહુને ફરીથી બીજી વાર આરંભ કર ન પડે, તથા એટલી જ માત્રા લેવી જોઈએ કે જે લેવાથી પિતાની યાત્રાનું પાલન થઈ શકે, અર્થાત્ જે સંચનયાત્રાને નિષ્ઠ
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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