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________________ A RTISROVER सिद्ध पद और णमोक्कार-आराधना श से प्रगट की शक्ति का अनुभव परीक्षण में व्यतीत आंदोलित भाव का ना होगा कता एवं मंत्राराधना के दो मार्ग : आध्यात्मिक और लौकिक सांसारिक वैभव और उन्नति लौकिक जीवन में अपेक्षित अवश्य है किंतु जीवन का अंतिम ध्येय नहीं है। इस विषय को कई स्थानों पर यथाप्रसंग विवेचित किया गया है। अंतिम लक्ष्य तो आत्मा के नितांत शुद्ध स्वरूप का अवगम- जानना, अधिगम- प्राप्त करना ही है, इसलिए णमोक्कार मंत्र की सबसे पहली उपयोगिता आत्म-कल्याण की सिद्धि है। साधुओं के लिए वह समुपादेय है ही क्योंकि उनका तो एक मात्र वही लक्ष्य है, परंतु लौकिक व्यक्ति सांसारिक लाभ से सर्वथा विरत नहीं हो सकते, इसलिये लौकिक दृष्टि से भी णमोक्कार मंत्र का उपक्रम चलता रहा है। आध्यात्मिक साधना ही जिनके जीवन का लक्ष्य है, वे साधु न तो लौकिक समद्धि के लिये णमोक्कार मंत्र की आराधना करते हैं और न वैसा करना उनके लिये समुचित ही है। यदि वे वैसा करते हैं, तो एक प्रकार से वापस उसी ओर मुड़ते हैं, जिसका वे परित्याग कर चुके हैं। लौकिक समद्धि तो परिग्रह है। अपरिग्रह जिनके जीवन का साध्य हो, उनके लिये परिग्रह निश्चित रूप में एक विघ्न या बाधा है। अत: उस ओर सोचना तक साधुओं के लिये वर्जित है, क्योंकि वे मानसिक, वाचिक एवं कायिक- तीनों योगों द्वारा तथा कृत, कारित एवं अनुमोदित- तीनों करणों द्वारा परिग्रह से विरत हैं। लौकिक दृष्टि से चिंतन का मापदंड कुछ भिन्न होता है। गहस्थ धर्मोपासक या श्रावक सर्वस्व त्यागी नहीं हो सकते । वे जब प्रत्याख्यान करते हैं तो अपने सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय आदि सभी दायित्वों को, कर्तव्यों को ध्यान में रखते हैं। तदनुसार वे ग्राह्यमान व्रतों में अपने-अपने सामर्थ्य के सार भिन्न-भिन्न अपवाद रखते हैं क्योंकि सबका सामर्थ्य, सबकी पारिवारिक, सामाजिक स्थितियाँ एक समान नहीं होतीं, सबका सामाजिक स्तर भी भिन्न-भिन्न होता है। इसलिये वे त्याग करते समय उन सब पक्षों को ध्यान में रखते हैं, जिनमें उनको अर्थ की विशेष रूप से आवश्यकता होती हैं। इसलिए उन आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए परिग्रह का परिमाण किया जाता है। अर्थात् उन आवश्यक कार्यों हेतु अर्थ-राशि संग्रहीत करना वे अपेक्षित मानते हैं। वैसा करना गहस्थ के लिये उसकी दृष्टि से अनुचित नहीं कहा जाता, किंतु साधु गृहस्थी के ऐसे कार्यों में सहयोगी या प्रेरक नहीं बनते। । अक्षरों संकल्पो स्थायी नयों का नाड़ियाँ त्रों में मंत्र-रूप शब्दब्रह्म द्वारा परब्रह्म का साक्षात्कार पुण्य भारतीय दार्शनिकों ने शब्द को अनंत शक्तिमय माना है। प्राचीन वैयाकरणों के अनुसार व्याकरण का कार्य केवल शब्दों का शुद्ध पठन और लेखन बताने तक ही सीमित नहीं होता। वैयाकरणों ने शब्द को ब्रह्म-स्वरूप माना है : : १८. 52
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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