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________________ णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन अनादिनिधनं ब्रह्म, शब्दतत्त्वं तदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। शब्द-तत्त्व आदि रहित है, अंत रहित है तथा वह विकार शून्य है । संसार की विभिन्न रूप में | प्रतिभासित होने काली प्रक्रियाएँ शब्द रूपी ब्रह्म का ही विवर्त है। भर्तृहरि के इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि शब्द शक्ति ब्रह्म या परमात्म-शक्ति की तरह असीम एवं विलक्षण है। वह साधना द्वारा प्रगट की जा सकती है। इस दृष्टि से चिंतन करें तो णमोक्काररूप शब्दब्रह्म में निष्णात साधक ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है । 'नितरां स्नातं येन स निष्णातः- यह निष्णात शब्द की व्युत्पत्ति है। इसका अभिप्राय यह है कि जिसने श्रुत समुद्र में गहराई से अवगाहन कर नमस्कार रूप महनीय रत्न को प्राप्त किया, वह निष्णात | कहा जाता है। शब्द-ब्रह्मरूप श्रुत-समुद्र की निगूढ़ता में अत्यंत गहराई में परब्रह्म रूप महारत्न है। णमोक्कार | मंत्र के अड़सठ अक्षरों के बिना परब्रह्म का अधिगम नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि णमोक्कार मंत्र परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाणी रूप है। पहली परावाणी शब्दब्रह्म का बीज है। वही परब्रह्म हैं। नवकार मंत्र द्वारा परा वाणी तक पहुँचा जा सकता है, उसका साक्षात् अनुभव किया | जा सकता है । निर्विकल्परूप— बिना किसी विकल्प के अनुभव करना साक्षात् अनुभव है । उसी द्वारा परब्रह्म का अधिगम होता है। यहाँ जो अधिगम शब्द का प्रयोग हुआ है, उसका विशेष अर्थ है 'अधि' का तात्पर्य भाव सान्निध्य है। अर्थात् अभिन्नानुभाव द्वारा गम- ज्ञान का कैवल्य का साक्षात्कार है। I 1 अभिन्नानुभव का आशय आत्मा और परमात्मा की अभेदानुभूति है। यही चतुर्दश पूर्व का रहस्य है । शब्द - ब्रह्म में निष्णातता, निपुणता, सिद्धता आदि उसी के पर्यायवाची रूप हैं। विमर्श जो शब्द हम सुनते हैं, वह तात्त्विक दृष्टि से उसका बाह्य रूप है । शब्द की उत्पत्ति या निष्पत्ति पर तत्त्व द्रष्टा मनीषियों ने गहन चिंतन-मनन किया है। शब्द के प्रगट होने से पूर्व उसका सूक्ष्मतम अव्यक्त- अमूर्त रूप आत्मा में, आत्म-परिणमन में उद्भूत होता है, उसे 'परा- वाणी' कहा जाता है । वह प्राकट्य हेतु प्राणवायु द्वारा चित्त को आंदोलित करता है, उसे 'पश्यन्ती - वाणी' कहा जाता है । १. (क) वाक्यपदीय, ११. (स) सर्वदर्शन संग्रह पृष्ठ ५९१. 53
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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