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सिद्धत्व-पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य
कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, इला, सूरा, रसा, गंधा आदि देवियों का, जो अपने पूर्वभव में भगवान् पार्श्वनाथ की अनुयायिनी थीं, जो संयम की विराधना करके देवियाँ हुई, वर्णन है। ये सभी देवियाँ आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह-क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और संयम की आराधना करके सिद्धत्व प्राप्त करेंगी।
१२. वृष्णिदशा
यह बारहवाँ उपांग है। इसमें बारह अध्ययन हैं। इसमें यादव कुलोत्पन्न बारह राजकुमारों का वर्णन हैं। इन्होंने दीक्षा अंगीकार की। द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण वासुदेव तथा बाईसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि का भी विशेष रूप से वर्णन है। यदुवंशी राजाओं का यहाँ जो वर्णन किया गया है, वह भागवत में वर्णित चरितों से तुलनीय है।
चार मूल-सूत्र
तेरहवीं शताब्दी तक 'मूल सूत्र के रुप में विभाग नहीं हुआ था। आचार्य प्रभाचंद्र ने 'प्रभावक चरित' नामक ग्रंथ में सबसे पहले अंग, उपांग, मूल, छेद रूप में आगमों के विभाजन का उल्लेख किया, तत्पश्चात् आचार्य समयसुंदर ने 'समाचारी शतक' में इसका उल्लेख किया है।
यहाँ आगमों के साथ आया हुआ मूल शब्द श्रमणों के आचार संबंधी मूल गुण, महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि से संबद्ध है। इसके अनुसार श्रमण-जीवन की चर्या के अनुसरण में, मूल गुण पालन में मूलत: ये आगम एक प्रकार से सहायक बनते हैं। इसलिए इनका अध्ययन श्रमण के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है। संभवत: इसी चिंतन के अनुसार दीक्षा लेने के पश्चात् सबसे पहले क्रमश: दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययन-सूत्र आदि का अध्ययन कराया जाता है।
ऐसा प्रसिद्ध है- पहले आगमों का अध्ययन आचारांग-सूत्र से कराया जाता था, क्योंकि आचारांग में साधु के आचार का विवेचन है किंतु जब से आचार्य शय्यंभव ने दशवैकालिक-सूत्र की रचना की, तब से सबसे पहले दशवैकालिक सूत्र का अध्ययन कराया जाने लगा।
प्रायश: दशवैकालिक-सूत्र, उत्तराध्ययन-सूत्र, नंदी-सूत्र तथा अनुयोगद्वार-सूत्र- इन चार आगमों को मूल सूत्र माना जाता है। १. दशवैकालिक-सूत्र
विकाल शब्द का अर्थ 'संध्या है। संध्या-काल में अध्ययन किये जाने के कारण इसका नाम दशवैकालिक पड़ा। इसकी रचना आचार्य शय्यंभव ने की। वे विद्वान् आचार्य थे। उनके पुत्र मणक ने
१. व्यवहार भाष्य, उद्देशक-३, गाथा-१७३.
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