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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
इसमें कुलकरों का, भगवान् ऋषभदेव के जीवनवृत्त का तथा भरत चक्रवर्ती के छ: खंड साधने की रीति आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह ४१४६ श्लोक प्रमाण है।
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६.-७. चंद्रप्रज्ञप्ति-सूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति-सूत्र
इन्हें छठा और सातवाँ उपांग माना जाता है। इनमें सूर्य, चंद्रमा तथा नक्षत्रों की गति आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। द्वीपों और सागर आदि का भी वर्णन है । उत्तरायण, दक्षिणायन आदि ज्योतिष संबंधी विषय भी इनमें निरूपित हैं।
ये दोनों पाठ की दृष्टि से एक समान हैं। केवल अंतर इतना ही है कि सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रारंभ में 'वीरत्युई' के नाम से मंगलाचरण की चार गाथाएँ हैं। तत्पश्चात् 'तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला | णामं णयरी होत्था वण्णओ', इस वाक्य से इस आगम का प्रारंभ होता है। चंद्रप्रज्ञप्ति में मंगलाचरण की वे चार गाथाएँ नहीं है, जो सूर्यप्रज्ञप्ति में हैं। ८. निरयावलिका-सूत्र
यह आठवाँ उपांग है। निरयावलिका या कल्पिका के अंतर्गत निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचलिका एवं वृष्णिदशा- ये पाँच उपांग हैं। निरयावलिका या कल्पिका में दश अध्ययन हैं। निरय का अर्थ नरक है। इसमें नरकगामी जीवों का वर्णन है। मगध देश के प्राचीन इतिहास को जानने की दृष्टि से इस आगम में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ हैं। संसार के संबंधों की अनित्यता तथा संसार की विचित्रता का इसमें विशद विवेचन है।
९. कल्पावतंसिका
यह नौवाँ उपांग है। इसमें दस अध्ययन हैं। राजा श्रेणिक के दस पौत्रों का इसमें जीवनवृत्त है। उन्होंने श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। साधना द्वारा आयुष्य पूर्ण कर वे स्वर्गवासी हुए। वहाँ से वे पुन: आयुष्य पूर्णकर मनुष्य रूप में जन्म लेंगे तथा व्रतमय जीवन स्वीकार कर कर्म-मुक्त हो, सिद्धावस्था को प्राप्त होंगे।
१०. पुष्पिका
यह दसवाँ उपांग है। इसमें दश अध्ययन हैं। चंद्र, सूर्य, शुक्र, मानभद्र आदि के पूर्वभवों का तथा सोमिल ब्राह्मण का वर्णन है। भगवान् पार्श्वनाथ का संवाद एवं बहुपुत्रिका देवी का अधिकार भी उल्लेखनीय है।
११. पुष्पचूलिका
यह ग्यारहवाँ उपांग है। इसमें दस अध्ययन हैं। सौधर्मकल्प में निवास करनेवाली श्री, ही, धृति
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भारत