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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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उपांग-परिचय
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संस्कृत में 'उप' उपसर्ग सामीप्य का द्योतक है। उप+अंग = उपांग का अर्थ वे आगम हैं, जो अंग तो नहीं हैं किंतु अंगों के सदृश हैं। अंग-आगमों में जो विषय उल्लिखित हुए हैं, उन पर पूरक सामग्री के रूप में जो और भी सूत्र विरचित हुए, वे उपांगों में परिगृहीत किये गये।
जैन दर्शन में ज्ञान और आचार का बहुत महत्त्व रहा है। अत: अध्ययन, चिंतन, मनन आदि के | रूप में शास्त्रीय ज्ञान का उत्तरोत्तर विकास होता रहा।
उपांगों के अंतर्गत आने वाले सूत्र तत्त्वत: अंगों का अनुसरण करते हैं। अंगों के संख्याक्रम के अनुरूप उपांगों का विषय-विवेचन की दृष्टि से तो अंगों के साथ सामंजस्य नहीं है किंतु समुच्चय रूप में उनमें प्राय: वैसे ही विषय व्याख्यात हुए हैं, जैसे अंगों में हैं। अब आगे उपांगों का संक्षेप में परिचय प्रस्तुत किया जायेगा। १. औपपातिक-सूत्र
यह पहला उपांग है। उपपात का अर्थ उत्पन्न होना या जन्म लेना है। इसी से औपपातिक शब्द निष्पन्न हुआ है। इस सूत्र में देवताओं तथा नारकों आदि का जन्म तथा साधकों के सिद्धिगमन का वर्णन है।
इसमें दो अध्ययन हैं। धार्मिक, दार्शनिक आदि सिद्धांतों के सुंदर विवेचन के साथ इसमें सामाजिक, लौकिक जीवन की भी चर्चा है। जैन आगमों के रचना-क्रम की एक विशेषता है। नगर, उद्यान, राजा आदि विषयों का जहाँ भिन्न-भिन्न आगमों में उल्लेख आता है, वहाँ उनका वर्णन नहीं किया जाता है। वहाँ 'वण्णओ' शब्द द्वारा यह संकेत किया जाता है कि यह वर्णन दूसरे आगम से लिया जाय । औपपातिक सूत्र में नगरादि का जो वर्णन आया है, अन्य आगमों में यहीं से उसे लेने का संकेत किया गया है।
भगवान् महावीर के शरीर का, अंगोपांगों का तथा समवसरण का बहुत ही सुंदर और विस्तृत वर्णन जैसा इस आगम में आया है, वैसा अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। एक विशेषता यह है कि इस आगम में जैन धर्म के अतिरिक्त अन्य संप्रदायों का भी उल्लेख मिलता है। उस समय वानप्रस्थ, परिव्राजक, तापस आदि नामों से और भी अनेक संप्रदाय भारत में प्रचलित थे। उनमें कई ऐसी आचार-परंपरा का पालन करते थे, जो वैदिक और जैन- दोनों में मिलती थी। __भारत वर्ष में विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के विकास के तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से यह आगम बहुत महत्त्वपूर्ण है।
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