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९. अनुत्तरौपपातिक-सूत्र
इसमें एक श्रुतस्कंध और तीन वर्ग हैं। इसमें भगवान् महावीर के समय के उन तपस्वी साधकों का वर्णन है, जिन्होंने अपनी साधना द्वारा अनुत्तरविमान देवलोक में जन्म लिया। वे वहाँ से अपना आयुष्य पूर्ण कर, मनुष्य जन्म प्राप्त कर, मोक्ष प्राप्त करेंगे।
सिद्धत्व- पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य
१०. प्रश्नव्याकरण- सूत्र
इसमें दो श्रुतस्कंध हैं। दोनों में पाँच-पाँच अध्ययन हैं। पहले में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, और परिग्रह का पाँच आस्रव द्वारों के रूप में वर्णन है । इनके द्वारा कर्म-प्रवाह आता है, अतः ये आय द्वार है। दूसरे श्रुतस्कंध में प्राणातिपात वर्जन, मृपावाद वर्जन, अदत्तादान वर्जन, अब्रह्मचर्य वर्जन और परिग्रह वर्जन- इन पाँच संवरों द्वारा आस्रवों के निरोध का वर्णन है। इसलिये ये संवरद्वार कहलाते हैं।
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प्रश्नव्याकरण का आज जो रूप प्राप्त है, वह पहले नहीं था, क्योंकि स्थानांग सूत्र में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययनों का वर्णन है, जहाँ क्रमश: उपमा, संख्या, ऋषि-भाषित, आचार्य-भाषित, महावीर भाषित आदि का उल्लेख है, जो प्रश्नव्याकरण के वर्तमान रूप से भिन्नता प्रगट करता है। समवायांग सूत्र में भी प्रश्नव्याकरण का भिन्न रूप में उल्लेख है।
यह किस प्रकार, कब परिवर्तन हुआ, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह परिकल्पना की जा सकती है संभव है, यह आगम किसी भी मुनि को स्मरण न रहा हो, पूर्ति हेतु किसी विद्वान् साधु ने इन दो श्रुतस्कंधों की प्रतिष्ठापना की हो।
११. विपाक - सूत्र
यह ग्यारहवाँ अंग है । विपाक का अर्थ फल या परिणाम होता है । इसमें दो श्रुतस्कंध हैं । पहला दुःखविपाक और दूसरा सुखविपाक है। प्रथम श्रुतस्कंध में दूषित या पापपूर्ण व्यक्तियों का वर्णन है । | वर्णन इतना मार्मिक है कि पाठक को वैसे जघन्य पापपूर्ण कार्यों से निवृत्त होने की प्रेरणा प्राप्त होती है। दूसरे श्रुतस्कंध में सत्कृत्य या पुण्यकर्म करने वाले का वर्णन है। पुण्य से ऐश्वर्य, सुख आदि प्राप्त | होते हैं। धार्मिक आराधना का अवसर मिलता है तथा जीव साधना पथ पर आगे बढ़ता हुआ, कर्म क्षय करता हुआ, मोक्ष प्राप्त करता है ।
१२. दृष्टिवाद
यह वारहवाँ अंग है । दृष्टि का अर्थ दर्शन तथा वाद का अर्थ चर्चा या विचार-विमर्श है। इसमें | संभवत: विभिन्न दर्शनों और विद्याओं की चर्चा रही हो। दृष्टिबाद इस समय लुप्त है। चौदह पूर्वी का | ज्ञान दृष्टिवाद के अंतर्गत था ।
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