SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसंहार : उपलब्धि : निष्कर्ष पर अग्रसर स्थति हो नी जीवन - पथ को T होगा। कहा है। ज्ञान के ख्या भी क्-दर्शन के भेद हैं। यदि के स्थान ग होता कृत्यों में लगाती है। इसीलिए भगवान् महावीर ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में 'अहिंसा विन्नाणं'- अहिंसा ही विज्ञान है- ऐसा कहा। विज्ञान का अर्थ विशिष्ट ज्ञान या सूक्ष्म ज्ञान है। वह सूक्ष्म ज्ञान जब आत्म-स्वभाव की दिशा में प्रवृत्त हो तब वह आध्यात्मिक दृष्टि से विज्ञान कहा जा सकता है। उत्तरोत्तर उन्नति करते भौतिक विज्ञान के साथ यदि आध्यात्मिक विज्ञान संलग्न रहता तो संसार में कुछ और ही वातावरण होता। विज्ञान अपने आप में बुरा नहीं है, किंतु उसके प्रयोग का जब अवसर आता है, तब उसकी उपादेयता, अनुपादेयता का पता चलता है। इसलिए अध्यात्म-तत्त्व को समझना और जीवन में उतारना अत्यंत आवश्यक है। इस शोध-ग्रंथ के लिखे जाने में यह भी एक भाव रहा है कि भौतिक विज्ञान के साथ आध्यात्मिक विज्ञान को भी लोग समझें, जिससे उस विनाशलीला से वे बच सकें, जिसके कारण आज मानवता भयभ्रांत एवं सन्त्रस्त है। भगवान् महावीर ने ऐसे धर्म का संदेश दिया, जो किसी जाति, वर्ग, वर्ण एवं संप्रदाय के साथ जुड़ा हुआ नहीं है। उसका प्राणी मात्र के साथ संबंध है। वह सर्वथा सार्वजनीन है। अहिंसा या करुणा का भगवान् महावीर द्वारा दिए गए धर्म-संदेश में सबसे अधिक महत्त्व है। 'सव्वेसि जिवियं पियं'- सबको अपना जीवन प्रिय है। किसी से उसके जीने का अधिकार जो भी छीनता है, वह अपराधी और पापी है। अहिंसा से समत्व फलित होता है, अत: वह सर्वग्राह्य है। उसी प्रकार संतोष, सत्य, शील, अपरिग्रह आदि भी सभी के लिए कल्याणकारी हैं। ___ भगवान् महावीर ने चिंतन के क्षेत्र में ऐकांतिक आग्रह को कदापि स्थान नहीं दिया। उन्होंने अनेकांतवाद को प्रतिष्ठित किया, जिसके अनुसार एक वस्तु को अनेक अपेक्षाओं से देखने का मार्ग प्राप्त होता है। उसके फलस्वरूप अनेक विचार धाराओं का समन्वय हो जाता है। संघर्ष, क्लेश और कदाग्रह मिट जाते हैं। भगवान् महावीर के दर्शन का अंतिम लक्ष्य परम शांतावस्था है, वही जीवन की सच्ची सफलता है। साधना पुरुषार्थ या आत्म-पराक्रम की सिद्धि है, वैसी सिद्धि जो प्राप्त कर लेता है, वही सिद्ध कहा जाता है। सिद्धत्व प्राप्ति का संबंध किसी व्यक्ति-विशेष, देश-विशेष और जाति-विशेष के साथ नहीं है। हर किसी देश, जाति और वर्ग का भव्य व्यक्ति, यदि वह तदनुरूप अध्यवसाय करता है, साधनारत रहता है तो सिद्धत्व प्राप्त कर सकता है। सिद्धत्व-प्राप्ति के मार्ग के साथ अहिंसा आदि के शाश्वत सिद्धांत जुड़े हुए हैं। यह जीवन का सबसे महान् लक्ष्य है, क्योंकि वहाँ पहुँचने के पश्चात् वे सब न्यूनताएं मिट जाती हैं, जो मानव के जीवन में अनेक चिंताओं, विषमताओं, पीड़ाओं के रूप में उत्पन्न होती हैं। लक्ष्य की मूल्यवत्ता, उपादेयता जब जीवन में व्याप्त हो जाती है, तो वैसा व्यक्ति सहज रूप में हिंसा, निर्दयता, शत्रुता, असहिष्णुता, वासना, लोभ आदि कलुषित भावों से अपने को दूर कर, विश्व-वात्सल्य, एकता, मैत्री -णात हा अज्ञान उपयोग द होता जा रहा स्त्रों के हैं, फिर के लिए मार्थ को है, उसी गे दृष्टि के साथ पापपूर्ण 488 सा
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy