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णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन
मानव को विनाश की ओर नहीं ले जाता, निर्माण की ओर ले जाता है, वह उसे शांति की ओर अग्रसर करता है।
अज्ञान-ज्ञान-विज्ञान
अज्ञान अंधकार है। जब वह जीवन में व्याप्त होता है, तब मनुष्य की एक अंधे जैसी स्थिति हो जाती है। जिस प्रकार एक चक्षु विहीन पुरुष इधर-उधर भटकता रहता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीवन में सदा विभ्रांत बना रहता है। वह नहीं जान पाता कि अपने उत्थान के लिए किस पथ को अपनाए ? जो जीवन के यथार्थ लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें ज्ञान का अवलंबन लेना होगा। इसीलिए पाश्चात्य विचारकों ने Knowledge is life- ज्ञान जीवन है, स्पष्ट शब्दों में ऐसा कहा है।
जैन दर्शन में ज्ञान और अज्ञान का बड़ा ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। साधारणत: ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहा जाता है, किंतु जैन दर्शन में इसके साथ-साथ अज्ञान की एक और व्याख्या भी दी गई है। वहाँ बतलाया गया है कि वह ज्ञान भी अज्ञान संज्ञक है, जो सत् श्रद्धान् या सम्यक्-दर्शन से रहित होता है। इसलिए जहाँ जैन दर्शन में मत्ति ज्ञान तथा श्रुत ज्ञान आदि के रूप में ज्ञान के भेद कहे गए हैं, वहाँ मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान के नाम से अज्ञान के भी भेद बतलाए गए हैं। यदि अज्ञान का अर्थ ज्ञान का न होना ही होता तो उसके भेद कहाँ से होते ? किंतु यहाँ अभाव के स्थान पर कुत्सितता का सद्भाव है, अर्थात् जिस ज्ञान के साथ विपरीत श्रद्धा का, मिथ्यात्व का संयोग होता है, उस ज्ञान को अज्ञान कहा गया है।
एक प्रश्न उपस्थित होता है- इस प्रकार के ज्ञान को दूषित या अनुपयोगी कह दिया जाता, अज्ञान क्यों कह दिया गया ? इसका समाधान यह है कि सत्य एवं तथ्य के प्रति निष्ठा विहीन ज्ञान का उपयोग न उपयोक्ता या प्रयोक्ता के लिए ही श्रेयस्कर होता है और न वह मानवता के लिए ही लाभप्रद होता है। आज यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। भौतिक विज्ञान आज उन्नति की दिशा में बढ़ता जा रहा है, किंतु यह स्पष्ट है, जैसा यहाँ भी सूचित किया गया, उसका द्रुत-गति से विनाशकारी शस्त्रास्त्रों के निर्माण में अधिकाधिक उपयोग हो रहा है। विभिन्न राष्ट्रों के यहाँ घातक शस्त्रों के भंडार भरे हैं, फिर भी वे आगे और शस्त्रास्त्रों के निर्माण से हाथ नहीं खींचते, यह बहुत बड़ी विडम्बना है।
जिस ज्ञान से आत्मा का कल्याण न सधे, कर्म-बंध होते जाएं, उस ज्ञान की जीवन के लिए तत्त्वत: कोई उपयोगिता नहीं होती, इसलिए वह एक प्रकार से अज्ञान ही है। यद्यपि किसी पदार्थ को जानने की उसमें अयोग्यता नहीं होती, जैसे एक मति ज्ञानी किसी वस्तु को, विषय को जानता है, उसी प्रकार मति अज्ञानी भी उसे जानता है, किंतु दोनों के दृष्टिकोण में अंतर रहता है। मति ज्ञानी की दृष्टि आत्मोन्मुखी होती है तथा मति अज्ञानी की दृष्टि परोन्मुखी होती है। आत्मोन्मुखता श्रेयस् के साथ संयुक्त होती है और परोन्मुखता आत्मा के लिए अकल्याणकारिणी होती है। मानव को वह पापपूर्ण
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