SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन और सहृदयता अपना लेता है। लोक-जीवन में ऐसे उदात्त एवं पवित्र भाव का समुदय प्रस्तुत शोध-कार्य का अभिप्रेत है, जिससे आज की अशांत मानवता शांति की ओर बढ़ सके, मानव जीवन की सार्थकता फलित हो सके। यदि इस प्रकार का भाव जन-जन में व्याप्त हो जाए तो जो कार्य आज वैज्ञानिक शस्त्र नहीं कर पा रहे हैं, वह इससे सिद्ध हो सकता है। यह संसार तो बहुत बड़ा है। इसमें अरबों लोग रहते हैं। कुछ व्यक्तियों के अहिंसक, सत्यनिष्ठा, सदाचरणशील, समत्व-भावयुक्त हो जाने से इसमें क्या अंतर आएगा? यहाँ समझने की बात यह है कि समष्टि के मूल में व्यक्ति है। एक-एक व्यक्ति के मिलने से समाज बनता है। व्यक्ति-व्यक्ति में प्रसार पाती हुई अहिंसा, करुणा और मैत्री-भावना उत्तरोत्तर बढ़ती जाए तो हम क्यों असंभव माने कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हो सकता। | गीता में कहा गया है कि व्यक्ति फल की आसक्ति रखे बिना कर्तव्य-कर्म करे। आसक्ति कर्म की पवित्रता को मिटा देती है। जब वह कर्म से अपगत हो जाती है, तब वह कर्म न रहकर योग बन जाता है। गीताकार ने इसी को कर्म-कौशल कहा है। अहिंसा केवल वैचारिक आदर्श नहीं है। वह मानव का धर्म है, स्वभाव है। हिंसा स्वभाव नहीं है, वह विभाव है। स्वभाव की कसौटी यह है कि उसका प्रतिक्षण आचरण किया जा सकता है। विभाव के साथ यह घटित नहीं होता। व्यक्ति निरंतर अहिंसा परायण रहे, किसी की हिंसा न करे, किसी को उत्पीड़ित न करे, यह संभव है, किंतु वह निरंतर हिंसा ही हिंसा करे, मारे ही मारे यह कदापि संभव नहीं है, क्योंकि हिंसा मानव का स्वभाव नहीं है। इसी प्रकार सत्य मनुष्य का स्वभाव है, असत्य नहीं। इसे यथावत् रूप में समझते हुए अहिंसा और सत्य में निष्ठाशील प्रत्येक व्यक्ति को आशावान रहना चाहिए कि अहिंसा और सत्य का स्वीकार और प्रचार सार्थक होगा। जिस प्रकार एक दीपक की लौ से अनेकानेक दीपक जल उठते हैं, उसी प्रकार हम क्यों न आशा करें कि उत्तरोत्तर विकासशील अहिंसा भी व्यापक रूप ले सकती है। एक ज्वलन्त प्रश्न आज लोगों के सामने एक प्रश्न है। What is the future of regligion and what is the religion of future _ अर्थात धर्म का भविष्य क्या है और भविष्य का धर्म क्या है ? इस पर गहराई से चिंतन करना होगा। आज लोगों के दैनंदिन जीवन की स्थिति की ओर दष्टि डालें तो ऐसा प्रतीत होता है कि युवा पीढ़ी धर्म से दूर हटती जा रही है। धार्मिक स्थानों में, प्रवचन-सभाओं में अधिकतर ऐसे लोगों की उपस्थिति होती है, जो वृद्ध हैं अथवा जो अपने कार्यों से विमुक्त हैं। युवा-वन्द की रुचि धर्म से उत्तरोत्तर घटती जा रही है। केवल व्यावहारिक रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने हेतु वे यदा-कदा धार्मिक आयोजनों में उपस्थित हो जाते हैं, किन्तु उनमें उन आयोजनों के प्रति कोई रस नहीं होता। 489 GER
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy