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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन. .. . . N HDJ में विमूढ़ जीव के क्रमिक आध्यात्मिक विकास की रूप रेखा सन्निहित है। अंतिम निरुद्ध भूमि आत्मा की उत्कृष्टतम विकसित दशा है। । महर्षि व्यास ने विवेकख्याति द्वारा होने वाले निवत्ति-क्रम या आत्मोत्थान-क्रम के रूप में आगे बढ़ने में प्रज्ञा के शुद्धिकरण का सर्वाधिक महत्त्व स्वीकार किया है। उत्तरोत्तर शूद्धिमूलक विकास की ओर बढ़ती हुई प्रज्ञा के उन्होंने सात रूप व्याख्यात किए हैं। योगवासिष्ठ में वर्णित भूमियों और पातंजल योग में व्याख्यात चित्तभूमियों और प्रज्ञाओं का विकास क्रम की दृष्टि से गुणस्थानों के साथ इस अध्याय में तुलना की गई है। बौद्ध धर्म में भी विकास क्रम का विशेष मार्ग बतलाया गया है। उसकी हीनयान शाखा में १. श्रावकयान, २. प्रत्येकबुद्धयान, ३. बोधिसत्त्वयान के रूप में उनके तीन भेद बतलाए गए हैं। महायान शाखा में विकास-क्रम की दृष्टि से- १. मदिता, २. विमला, ३. प्रभाकरी, ४. अर्चिष्मती. ५. सुदुर्जया, ६. अभिमुक्ति, ७. दुरंगमा, ८. अचला, ९. साधमती, १०. धर्ममेध के रूप में दस प्रकार की भूमिकाएँ स्वीकृत हैं। बौद्ध धर्म में वर्णित विकास-क्रम की इन पद्धतियों की भी इस अध्याय में चर्चा की गई है। समीक्षात्मक दृष्टि से गुणस्थानों के साथ उन पर चिंतन किया गया है। इस प्रकार विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टिकोण से चिंतन-मंथन पूर्वक गुणस्थानों की सिद्धत्व-प्राप्ति में सफल भूमिका का इस अध्याय में निरूपण हुआ है। sardastiativirmlending- षष्ठ अध्याय सिद्धत्व-प्राप्ति के साधना मार्गों में जैन योग पद्धति द्वारा एक साधक किस प्रकार अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकता है, यह इस अध्याय में प्रतिपादित किया गया है। जैन योग-पद्धति की भी चर्चा ने गई है, जिसके आविर्भावक आचार्य हरिभद्र सूरि थे। उन्होंने जैन धर्म में स्वीकृत संयम, व्रत, शील तथा तपमूलक आचार-विधाओं को योग के ढांचे में ढाला। आगे चलकर आचार्य हेमचंद्र तथा शुभचंद्र आदि विद्वानों ने उसका विकास किया। आचार्य हरिभद्र ने पातंजल योग के समकक्ष- १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कांता, ७. प्रभा एवं ८. परा के रूप में आठ योग-दृष्टियों की परिकल्पना की। इच्छा-योग, शास्त्र-योग, सामर्थ्य-योग आदि के रूप में योगाभ्यास की दृष्टि से मौलिक चिंतन दिया। आचार्य हेमचंद्र और शुभचंद्र ने पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान के विवेचन के अंतर्गत पिंडस्थ ध्यान की १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. वायवी, ४. वारूणी तथा ५. तत्त्वभू नामक पाँच धारणाओं का विवेचन किया, जो योगाभ्यासी साधकों के लिए वास्तव में बहुत उपयोगी है। smakAtithindimawarantitaulMTAawalikasikantalilaifielbisanliadia-n. 483 Blessi ASTHAT MARATHI
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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