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आत्मा
आगे की
का
मैं १.
मती,
कार
है |
एवं
इस
की
चर्चा
शील
चंद्र
थरा,
प्रोग,
चार्य
डस्थ
का
इस अध्याय में उनका सारांश प्रस्तुत करते की गई है।
उपसंहार उपलब्धि : निष्कर्ष
हुए सिद्धत्व की साधना में उनकी उपयोगिता की चर्चा
आचार्य हरिभद्र सूरि ने गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्त चक्र योगी एवं निमन्नयोगी के रूप में योग-साधकों के चार भेद बतलाए, जिनके साथ योग-साधना के भिन्न-भिन्न आयाम जुड़े हुए हैं । उनके संबंध में भी इसी अध्याय में चर्चा करते हुए सिद्धत्व की दिशा में अग्रसर मुमुक्षुओं की गतिविधियों का विवेचन किया गया है।
आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा योगविंशिका में वर्णित १ स्थान- योग, २. ऊर्ण-योग, ३. अर्थ-योग, ४. आलंबन योग तथा ५ अनालंबन योग पर भी इस अध्याय में प्रकाश डाला गया है। अनालंबन योग, योग-साधना का सर्वोत्तम रूप है। उसे प्राप्त कर लेने का परिणाम सिद्धत्व के रूप में घटित होता | है |
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सिद्धत्व की साधना के अंतिम चरण अयोगावस्था तक पहुँचने में शुक्ल ध्यान के १. पृथक्त्व - श्रुत- सविचार, २. एकत्व - श्रुत- अविचार, ३. सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति तथा ४. समुच्छिन्न- क्रिया- अप्रतिपाति- ये भेद किस प्रकार सिद्ध होता है ? उस सम्बंध में भी विश्लेषण किया गया है।
योग-सूत्र में प्रतिपादित यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधिइन आठ अंगों पर भी जैन योग के साथ समीक्षात्मक दृष्टि से विचार करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि चित्त शुद्धि या चित्त निरोध की प्रक्रिया अध्यात्म योग के मार्ग से आगे बढ़ती हुई अत्यन्त शुद्ध बनकर सिद्धत्व के ध्येय तक पहुँचा देती है ।
सप्तम अध्याय
महान् अध्यात्म योगी आचार्य कुंदकुंद ने सिद्धत्व प्राप्ति की दिशा में शुद्धोपयोग की बड़ी मार्मिक चर्चा की है। उन्होंने उसे सिद्धत्व प्राप्ति का अनन्य साधन बतलाया है। उस प्रसंग को संक्षेप में इस अध्याय में व्याख्यात करते हुए निश्चय नय की दृष्टि से विचार किया गया है। सिद्धों के निरुपाधिक ज्ञान, दर्शन तथा आध्यात्मिक वैशिष्ट्य, शुद्ध आत्मभाव- परमात्मभाव की आराधना आदि पर भी आचार्य कुंदकुंद के सारगर्भित विचारों को यहाँ प्रस्तुत किया गया है, जो सूक्ष्म, तात्त्विक दृष्टिकोण युक्त हैं।
वैदिक धर्म की दृष्टि से भी परमात्म पद या ब्रह्म पर विचार किया गया है। वैदिक धर्म के मूल आधार वेद हैं। जैन धर्म में जो आगमों का महत्त्व है, उसी प्रकार वैदिक धर्म में वेदों का महत्त्व है । वेदों को अपौरुषेय माना जाता है, अर्थात् वे किसी पुरुष या मानव द्वारा रचित नहीं हैं। मीमांसा दर्शन
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