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________________ उपसंहार : उपलब्धि: निष्कर्ष | A विनाश के आधार पर जो संयमानुप्राणित साधना-पथ ज्ञानियों ने निर्दिष्ट किए हैं, उनमें गुणस्थानमूलक पथ बहुत ही उपयोगी है। ये गुणस्थान सोपानों के तुल्य हैं। किसी भी प्रासाद की छत पर, उसके शिखर पर तभी चढ़ा जा सकता है, जब समीचीन रूप में सोपान या सीढियाँ बनी हों। सिद्ध-पद आध्यात्मिकता की एक विशाल अट्टालिका है। गुणस्थान उसके शिखर पर पहुँचने का आरोह क्रम है। इस साधना-पथ को गुणस्थान कहने का अभिप्राय यह है कि इसके द्वारा आत्मा अपने स्वाभाविक गुणों को प्राप्त करने या प्रगट करने की दिशा में अग्रसर होती है। प्रबल प्रयत्न एवं अध्यवसाय के साथ वह क्रियाशील रहे तो उसकी सफलता में कोई संदेह नहीं रहता है। गुणस्थानमूलक पद्धति, विकास का एक ऐसा मनोवैज्ञानिक कम है, जो साधक को विशेष रूप से आकृष्ट करता है। मिथ्यात्व से, जो जीवन का निकृष्टतम रूप है, निकल कर मुमुक्षु जीव अपने उन गुणों को प्राप्त करने हेतु समुद्यत होता है, जो विजातीय तत्त्वों द्वारा अभिभूत हैं। जब मिथ्या या विपरीत श्रद्धान का दुर्ग टूट जाता है, तब सद् ज्ञान और सत् क्रिया का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। प्रमाद, मोह, राग, द्वेष, आदि, जिन्होंने आत्म-गुणों को बंदी बना रखा था, विध्वस्त हो जाते हैं। जीव की ऊर्ध्वगामिता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है और वह ऊँचा चढ़ता-चढ़ता अंतिम गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है, जहाँ आत्मा के समस्त गुण व्यक्त हो जाते हैं। उसे सिद्धत्व प्राप्त हो जाता है। इस अध्याय में सिद्धत्व की साधना के सोपानों के रूप में गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। अन्य धार्मिक परंपराओं में आत्मा के विकास के क्रमों का जो वर्णन हुआ है, उसे भी तुलनात्मक दृष्टि से उपस्थित करने का प्रयत्न किया गया है। | योगवासिष्ठ नामक वेदांत विषयक सुप्रसिद्ध ग्रंथ में आत्मा के विकास की चौदह भूमियों का निरूपण हुआ है, जिनमें अज्ञान दुःख और अध:पतन से निकलकर ज्ञान, आनंद और उत्थान की ओर जीव की प्रगति का उल्लेख है, जिसका समापन ब्रह्मसाक्षात्कार या परमात्म-प्राप्ति में होता है। इन चौदह भूमियों में पहली सात अज्ञान भूमियाँ है, जो पतन के साथ संलग्न हैं। आगे की सात ज्ञान भूमियाँ हैं। उनमें जीव ज्ञान द्वारा सत्यावबोध के मार्ग पर अग्रसर होता है। १. शुभेच्छा, २. विचारणा, ३. तनुमानसा, ४. सत्त्वापत्ति, ५. असंसक्ति, ६. पदार्थाभावनी तथा ७ ज्ञान भूमियाँ हैं, जो आत्मा को उत्तरोत्तर उत्थान की ओर ले जाती हैं। पातंजल योगसूत्र के भाष्यकार महर्षि व्यास ने चित्त भूमियों के रूप में आत्मा के क्रमिक विकास का मार्ग बतलाया है। ___ पातंजल योग के अनुसार चित्त ही आत्मा के पतन और उत्थान का मुख्य हेतु है । १. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र तथा ५. निरुद्ध ये चार चित्त-भूमियाँ हैं। इन भूमियों में इंद्रिय-विषयों ' | 482
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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