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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन । यह विवेचन आचार्य उमास्वाति द्वारा 'तत्त्वार्थ-सूत्र' में की गई मोक्ष की व्याख्या से प्रारंभ होता है। तत्त्वार्थ-सूत्र के टीकाकार आचार्य अकलंक द्वारा रचित 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में इस संदर्भ में किए | गए विश्लेषण की यहाँ विशेष रूप में चर्चा की गई है। आचार्य उमास्वाति द्वारा अपने दूसरे ग्रंथ 'प्रशमरति प्रकरण' में किए गए सिद्ध-पद के निरूपण, रत्नत्रय द्वारा मोक्ष की सिद्धि आदि के आधार पर इस अध्याय में विचार किया गया है। षट्खंडागम तथा उन पर आचार्य वीरसेन रचित धवला-टीका के भी उन प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया है, जिनमें सिद्ध-नमन तथा सिद्ध-पद विश्लेषण आदि का उल्लेख है। आचार्य पूज्यपादकृत 'सिद्ध-भक्त्यादि संग्रह', आचार्य हरिभद्र सूरि रचित 'योगदष्टि समुच्चय', 'षोडषक प्रकरण', आचार्य देवसेनकृत 'तत्त्वसार', आचार्य नागसेन रचित 'तत्त्वानुशासन', आचार्य हेमचंद्र रचित 'सिद्धहेमशब्दानुशासन', 'योगशास्त्र', 'त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित', आचार्य शुभचंद्र रचित 'ज्ञानार्णव', श्री जयतिलक सूरि रचित 'हरिविक्रमचरित, श्री वर्धमान सूरि रचित 'आचार-दिनकर-संदर्भ', भट्टारक सकलकीर्ति रचित 'तत्त्वार्थ सार दीपक', मुनिसुंदर सूरि रचित 'अध्यात्मकल्पद्रुम', श्री रत्नचंद्रगणिकृत 'मातृका प्रकरण संदर्भ' आदि ग्रंथों एवं साराभाई नवाब द्वारा संग्रहीत 'महाप्रभाविक नवस्मरण' आदि अन्य रचनाओं में सिद्ध-पद के संबद्ध में विविध रूप में जो विवेचन हुआ है, उसका सार-संक्षेप विमर्श पूर्वक इस अध्याय में उपस्थित किया गया है। जैन लेखकों द्वारा लोकभाषाओं में भी णमोक्कार मंत्र और तद्गत पंच परमेष्ठी पदों के अंतर्गत सिद्धों के स्वरूप, आदि के विषय पर प्रकाश डाला गया है। उनके विचारों को भी यथा प्रसंग उपस्थित करने का प्रस्तुत अध्याय में प्रयास रहा है। पंचम अध्याय साध्य, साधना और साधक का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। साधना द्वारा ही साधक साध्य को प्राप्त कर सकता है। साधना गंतव्य स्थान पर पहुँचाने का सही मार्ग है। सिद्धत्व साध्य है। मुमुक्षु, भव्य पुरुष साधक है। संवरमूलक आचार-पद्धति साधना है। वही सिद्ध रूप साध्य को आत्मसात् करने का सच्चा पथ है। संयम का सम्बन्ध आत्म-नियमन से है। आत्म-नियमन से संवर और निर्जरा रूप मार्ग प्राद होते हैं। कर्म-प्रवाह के निरोध और संचित कर्मों के क्षरण या निर्जरण से उनका उच्छेद होता है। अंतत: कर्मों का संपूर्णत: अभाव हो जाता है। कर्मों के आवरणों के हटते ही आत्मा का परम ज्योतिर्मय रूप आविर्भूत हो जाता है, जो मुक्ति या सिद्धि के रूप में अभिहित हुआ है। क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों के निग्रह, राग-द्वेष एवं संपराय के अपाकरण, कर्मबंधनों के 481
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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