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________________ सद्धत्वापलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परीिनिवाण इस्लाम धर्म के का आवागमन ये सारे भारत ।। सूफियों की रस्पर वैचारिक की है, जिनके है कि प्रेम की क प्रेमी अपनी मात्मा को पाने 'प्रकार अपनी में जीव बेचैन होती है। मावत' नामक में रूपकों के जिस प्रकार कबीर ने परमात्मा को पति के रूप में और आत्मा को पत्नी के रूप में स्वीकार कर साधना के साथ प्रेम-तत्त्व को जोड़ा, जैन कवियों और संतों की रचनाओं में भी हमें वैसा प्राप्त होता है। आचार्य बट्टकर ने अपने 'मूलाचार' नामक ग्रंथ के प्रारंभ मे मंगलाचरण में जिनेश्वर देव को भक्तिरूपी वधू के भर्ता या पति के रूप में वर्णित किया है। उत्तरवर्ती जैन संतों ने लौकिक प्रेम को परम पवित्र आध्यात्मिक प्रेम का रूप देने का बहुत ही सुंदर प्रयास किया। आध्यात्मिक प्रेममार्गी जैन संतों में योगिवर्य श्री आनन्दघनजी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका समय १५९३-१६७४ ई. माना जाता है। जनश्रुति के अनुसार इनका आवास स्थान मेड़ता (राजस्थान) था। इन्होंने आध्यात्मिक भक्तिपूर्ण अनेक पदों रचना की। आनंदघन चौबीसी उनमें मुख्य है। इसमें वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के स्तवन में उन्होंने लिखा है भगवान् ऋषभदेव मेरे प्रियतम हैं। मेरी आत्मा और किसी को प्रियतम के रूप में नहीं चाहती, क्योंकि वे प्रसन्न होकर मुझे अपना लेंगे, तो फिर मेरा कभी भी त्याग नहीं करेंगे। अत एव हमारा यह संबंध सादि-अनंत के रूप में स्वीकृत है अर्थात् इसका आदि तो है, किंतु अंत नहीं होगा। इसका तात्त्विक आशय यह है कि भगवान् ऋषभदेव से प्रेरणा प्राप्त कर मेरी आत्मा जब अपने शुद्ध-स्वरूप या परमात्मभाव को प्राप्त कर लेगी, तब उस स्थिति का कभी अंत नहीं होगा। वह अनंत-काल तक सदा शाश्वत बनी रहेगी। उन्होंने आगे लिखा है, इस संसार में समस्त प्राणी प्रेम-संबंध करते चले आ रहे हैं, पर वास्तव में वह उपाधि-मूलक होने से लौकिक प्रेम है, लोकोत्तर नहीं है, क्योंकि लोकोत्तर प्रेम संबंध तो निरुपाधिक बताया गया है, जो मोह, क्षोभ आदि उपाधिमय परधर्म रूप धन के सर्वथा त्याग से ही होता है। इस स्तवन के अंतिम पद में उन्होंने कहा है- भक्ति के अनेक प्रकार हैं, पर उन सब में निष्कपट पराभक्ति ही सर्वोत्कृष्ट है। शुद्ध चैतन्य-स्वरूप परमात्मा में सर्वथा अपने आपको समर्पित करने से ही परमात्म-पद का साक्षात्कार होता है। आनंदघनजी ने अन्य स्तवनों में भी परमात्मा के प्रति आत्मा के समर्पण और आध्यात्मिक प्रेम का जो रहस्यात्मक चित्रण किया है, वह मुमुक्षु साधकों के अंत:करण में परमात्म-भाव के प्रति उत्साह जगाता है। आत्मा की वह उस शक्ति का में वैसा बनने से आत्मा को । भक्तिमूलक पृष्ठ : ३०८. १. मूलाचार, पृष्ठ : १. २. आनंदघन चौबीसी, श्री ऋषभजिन स्तवन, पृष्ठ : १-५. 470 ला
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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