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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन । सूफी-परंपरा का उद्भव इस्लामी देशों में हुआ और इसका विकास अधिकतर इस्लाम धर्म के अधिकाधिक अन्यत्र होते जाते प्रचार का अनुगम करता गया। भारत वर्ष मे जब मुसलमानों का राज्य था तब मुस्लिम देशों से वहाँ के लोगों का आवागमन होने लगा। प्रारंभ में ये सूफी साधक पंजाब और सिंध में आकर रहने लगे। धीर-धीरे ये सारे भारत में फैल गए। उस समय भारत में भक्ति-आंदोलन या भक्ति का वातावरण व्याप्त था। सूफियों की साधना अपनी कुछ विशेषताओं के साथ संतों के अनुकूल थी। इसलिए दोनों में ही परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान हुआ। श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका में सूफी साधकों की चर्चा की है, जिनके प्रति हिन्दू और मुसलमान दोनों का आदर था।' सूफी संतों ने परमात्मा को प्रेम-पात्र के रूप में देखा। इसका अभिप्राय यह है कि प्रेम की तीव्रतम उद्भावना हेतु उन्होंने परमात्मा को प्रेयसी के रूप में स्वीकार किया। जैसे एक प्रेमी अपनी प्रियतमा को पाने के लिए अत्यंत व्याकुल हो उठता है, उसी प्रकार साधक में जब परमात्मा को पाने के लिए व्यग्रता उत्पन्न होती है, तब वह उस ओर अत्यधिक उन्मुख बनता है। जिस प्रकार अपनी प्रियतमा के विरह में प्रियतम तड़फता है, बेचैन रहता है, उसी प्रकार परमात्मा के विरह में जीव बेचैन रहता है। प्रेम में ऐसी असीम उत्कंठा जब उत्पन्न होती है, तब परमात्मा की प्राप्ति होती है। सूफी संतो में मलिकमुहम्मद जायसी का नाम बहुत प्रसिद्ध है। उन्होंने 'पद्मावत' नामक प्रबंध-काव्य लिखा, जो अवधी भाषा में दोहा, चौपाई आदि की शैली में है। उसमें रूपकों के आधार पर आत्मा के परमात्म-विषयक प्रेम का अनेक रूपों में वर्णन किया है। जैन साधना पद्धति में प्रेम का सामंजस्य __ जैन दर्शन के अनुसार आत्मा में असीम शक्ति है। कर्मों से आवृत होने के कारण आत्मा की वह शक्ति अव्यक्त है। पुरुषार्थ और अध्यवसाय द्वारा साधक कर्मों के आवरण को हटाकर उस शक्ति का साक्षात्कार कर सकता है। अरिहंत एवं सिद्ध किसी को कुछ देते नहीं, किंतु उनके स्मरण से, भक्ति से आत्मा में वैसा बनने की प्रेरणा जागरित होती है। इसलिए जैन साधना में भक्ति का विकास हुआ। भक्ति से आत्मा को परमात्म-स्वरूप की उपलब्धि में बल प्राप्त होता है। जैन आचार्यों, संतों और भक्तों ने भक्तिमूलक अनेक ग्रथों की रचना की। हिन्दी साहित्य का बृहद् इतिहास, पृष्ठ : १९७ हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ : १८९. २. हिन्दी साहित्य की भूमिका, पृष्ठ : ५६. ४. हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ : ३०८. 469 Halod views IrAdi
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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