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-साधना
होती है । तना ही
व्याख्यात
अभाव है। उसी
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मंजिल भटकते
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द्या के
वात्मा
रोग,
सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
| शोक, दुःख, पीड़ा, चिंता आदि से भरा है मुक्तावस्था नितांत चिन्मय, आनंदमय एवं शांतिमय है, | शाश्वत है । प्रत्येक भव्य जीव वैसा बनने में समर्थ है, क्योंकि उसका शुद्धत्त्व ही सिद्ध स्वरूप है, जिसे | पाने के लिए उसे अपने आंतरिक पराक्रम को जागरित कर श्रद्धा, ज्ञान और पुरुषार्थ के सहारे अग्रसर | होना होता है । यदि अपनी इस आध्यात्मिक यात्रा में वह निरंतर गमनोद्यत रहता है तो अंततः सफल हो जाता है । ब्रह्मसाक्षात्कार की दिशा भी तत्त्वतः इससे भिन्न नहीं है, जो विद्या के अवलंबन से प्रारंभ होती है । जब विद्या यथावत् रूप में आत्मा द्वारा स्वायत्त कर ली जाती है तब जीवन में सहज ही एक ऐसा आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है कि उसे सांसारिक सुख भोग, वासनाएं निरर्थक प्रतीत होने लगती हैं। उसमें उनके प्रति वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। क्रमशः वह ब्रह्मसाक्षात्कार, ब्रह्मसारूप्य प्राप्त | कर लेता है।
वेदांत दर्शन अद्वैतवादी है। वहाँ उसके अनुसार एक ही परमात्म-तत्त्व या ब्रह्म-तत्त्व है। वह सर्वव्यापक है। जीव अविद्या से मुक्त होकर उसी में लीन हो जाते हैं। जैन दर्शन अनेकात्मवादी है । उसके 'अनुसार प्रत्येक आत्मा का अपना पृथक् अस्तित्व है। सिद्धावस्था में स्वरूपतः ऐक्य होते हुए भी वहाँ पृथक्ता 'अबाधित रहती है। जैन दर्शन की अनेकात्मवाद के संबंध में सांख्य दर्शन के साथ संगति घटित होती है।
बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूप
निर्वाण का अर्थ संपूर्ण दुःखों का निरोध है। शील, समाधि और प्रज्ञा की क्रमिक साधना द्वारा | निर्वाण प्राप्त होता है। निर्वाण में चित्त के समग्र मल दूर हो जाते हैं । चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर अपने | प्रभास्वर स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। चित्त में कोई भी वृत्ति उठती नहीं । चित्त की समग्र वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं। उसको सुख-दुःख का वेदन नहीं होता, केवल शान्ति होती है। चित्त में बाह्य | विषयों का कोई आकार उठता नहीं। उसमें शब्द युक्त ज्ञानाकार भी नहीं होता। वह संस्कारों से भी | मुक्त हो जाता है। उस प्रकार चित्त की निर्मलता और वृत्ति रहितता ही निर्वाण है। निर्वाण में केवल शांति है, यदि उसे सुख गिनना हो तो गिनो। ऐसा चित्त पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करता। चित्त एक बार ऐसी अवस्था पा लेता है तो फिर उससे च्युत नहीं होता। उस अर्थ में निर्वाण को अच्युत और नित्य | गिना जाता है। निर्वाण अमृत - पद है, वह अजर है, निष्प्रपंच है, शिव है, विशुद्ध है और त्राण है ।
बौद्ध-परंपरा के सुप्रसिद्ध विद्वान् अश्वघोष ने निर्वाण विषय के विवेचन में संक्षेप में लिखा है
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । ।
१. बौद्ध धर्म दर्शन, पृष्ठ २७५.
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