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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन वह सत् श्रद्धान्, सत्यमूलक आस्था या सद् विश्वास का द्योतक है। इसके होने से ही संयम-साधना में सत्पुरुषार्थ जागरित होता है। इस विवेचन का अभिप्राय यह है कि सत् श्रद्धान से ही ज्ञान और चारित्र की सिद्धि होती है। जब तक अज्ञान, मिथ्यात्व विद्यमान रहता है, तब तक चारित्र की कितनी ही क्रिया करे, कितना ही तपश्चरण करे, साधना करे, उसका आत्मोत्थानमूलक फल नहीं होता। जैन दर्शन में जिसे मिथ्याज्ञान कहा गया है, उसी को वेदांत दर्शन में अविद्या के रूप में व्याख्यात किया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार जैन दर्शन में प्रयुक्त अज्ञान शब्द ज्ञान के अभाव का या न होने का द्योतक नहीं है वरन् विपरीत, हेय नितांत लौकिक ज्ञान का परिचायक है। उसी प्रकार वेदांत में अविद्या शब्द भी विद्या या ज्ञान के अभाव का परिचायक न होकर मात्र सांसारिक ज्ञान का संसूचक है, जो शुद्धात्मभाव या ब्रह्मसाक्षात्कार में जरा भी प्रयोजक या उपकारक नहीं है। कहा गया है अविद्यायामन्तरे वर्तमाना:, स्वयं धीरा: पण्डितम्मन्यमानाः । दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढा, अन्धेनेव नीयमाना यथान्धाः ।। जो अविद्या के भीतर विद्यमान हैं, अपने आप को बुद्धिमान और विद्वान मानते हैं, वे अज्ञानी या मूर्ख भिन्न-भिन्न योनियों में उसी प्रकार भटकते हैं, जिस प्रकार एक अन्धे पुरुष के द्वारा ले जाए जाने वाले अन्धे भटकते हैं। उपनिषद्कार ने अज्ञानी को यहाँ अंधे की उपमा दी है। अंधा नेत्रहीनता के कारण अपनी मंजिल पर सुख च सके, यह संभव नहीं होता। उसके पीछे चलने वाले अंधे भी उसी की ज्यों भटकते रहते हैं। जैन दृष्टि से भी यदि चिंतन किया जाय तो ऐसा ही तथ्य उद्घाटित होता है कि सम्यक् ज्ञान के बिना, साधक अपने साध्य तक पहुँच नहीं सकता। ___ जैन दर्शन में इसका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है। वहाँ इस साधनामूलक प्रक्रिया को तीन | भागों में बांटा है, जो सत् श्रद्धा, सत् ज्ञान और सत् क्रिया के रूप में विश्रुत हैं । वेदांत में विद्या के अंतर्गत इन तीनों का भावात्मक दृष्टि से समावेश किया गया है। ___ जीवात्मा और सिद्धात्मा में मूल या शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है। जीवात्मा संसारावस्था में है, क्योंकि वह कर्मावरण-युक्त है। संसार बंधन-युक्त है। वह जन्म, मरण, रोग, १. कठोपनिषद्, अध्याय-१, वल्ली-२, श्लोक-५ : ईशादि नौ उपनिषद्, पृष्ठ : ७९. 461
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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