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स्था है,
उस भी यह हैं । संभव
सारूप्य
कारण
मानता
में ब्रह्म
है। इस द्या का मृत की वृत का
बाहरी
ध है ।
हे, तर्क
है. जो
ही हो,
इसलिए
सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
तब
वह वहीं रूक जाता है, अपने मार्ग पर आगे नहीं बढ़ पाता । कुछ समय बाद प्रकाश हो जाता है, उसे ज्ञात होता है कि जिसको वह सर्प समझ रहा था, वह वास्तव में सर्प नहीं है, रस्सी है। उसका | संशय मिट जाता है। तज्जनित भय दूर हो जाता है और वह निर्भय होकर आगे बढ़ने लगता है। यथार्थ जानकारी या सही ज्ञान का यह फल होता है । इसी प्रकार जब आत्म-तत्त्व का, परमात्मभाव का व्यक्ति को बोध हो जाता है तो उसे ब्रह्मसाक्षात्कार का पथ प्राप्त हो जाता है। बोध की परिपूर्णता या समग्रता ब्रह्मसाक्षात्कार में परिणत हो जाती है। इसीलिए ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म हो जाता है, ऐसा कहा गया है ।
सांख्य दर्शन और न्याय दर्शन में तत्त्व - ज्ञान द्वारा दुःख - निवृत्ति- मोक्ष प्राप्ति, वैशेषिक दर्शन में श्रवण, मनन एवं भावना द्वारा परमात्मसाक्षात्कार तथा मीमांसा दर्शन में प्रपंच विलय द्वारा मोक्ष का जो विवेचन हुआ है, वह इसी दिशा की ओर इंगित करता है।
जब चिन्तन, मनन, निदिध्यासन और अन्तर्वीक्षण द्वारा तत्त्वावबोध हो जाता है, तब हेय, ज्ञेय | और उपादेय के संबंध में वास्तविकता को व्यक्ति जान लेता है । वह हेय का परिहार और उपादेय का स्वीकार कर लेता है ।
जैन दर्शन की दृष्टि से सिद्धत्व प्राप्ति पर विचार करें तो वहाँ भी सम्यक् ज्ञान को उसका मुख्य हेतु बतलाया गया है। ज्ञान के साथ जो सम्यक् विशेषण लगा है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान कहा जाता है, जिसके साथ सत् श्रद्धान् जुड़ा रहता है। सत् श्रद्धान का अभिप्राय सत् तत्त्व में श्रद्धा या विश्वास है । तत्पूर्वक होने वाला ज्ञान वास्तव में तथ्यपूर्ण होता है । आत्मा के विकास में, उत्थान में उस ज्ञान की बड़ी उपयोगिता है ।
जिस ज्ञान के साथ सत् श्रद्धान का अभाव होता है, उसे अज्ञान कहा जाता है। यहाँ अज्ञान का अर्थ ज्ञान का न होना नहीं है। जानकारीमूलक ज्ञान तो वहाँ होता ही है, किंतु सत्य में श्रद्धा न होने के कारण या श्रद्धा की विपरीतता के कारण वह ज्ञान व्यक्ति को आत्मोन्नति के पथ पर नहीं ले जाता । | वह पतन की ओर ले जाता है। वह कुत्सित होता है। कुत्सितता के कारण उसे अज्ञान कहा जाता है। मिथ्याज्ञान- मिथ्यात्व या मिष्या-दृष्टि आदि नामों द्वारा अभिहित किया गया है। इसलिए साधनारत साधक को सबसे पहले मिध्यात्व को मिटाना अत्यंत आवश्यक है। कहा गया है
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो ।
संजमम्मि य वीरियं । ।
माणुसत्तं सुई सद्धा,
ये
इस संसार में मनुष्यत्व - मानवयोनि, श्रुति सद्धर्म का श्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रमचार बातें दुर्लभ हैं। सूत्रकार द्वारा बतलाई गई इन चार बातों में, जो तीसरा श्रद्धा शब्द आया है, १. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन- ३, गाथा - १.
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