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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
साधित कर लेने से ही मानव जीवन सफल कहा जा सकता है, क्योंकि वह ऐसी परम शुद्धावस्था है, जो सुख-दु:ख, अनुकूल-प्रतिकूल आदि परिस्थितियों से अतीत है।
मनुष्य जो कुछ भी पाना चाहता है, उसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वह सबसे पहले उस पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करे। सिद्ध-पद प्राप्ति या ब्रह्मसाक्षात्कार के संदर्भ में भी यह अपेक्षित है। जैन शास्त्रों, उपनिषदों एवं वेदांत के ग्रंथों में इस संबंध में विश्रुत्त चर्चाएँ हुईं हैं।
वेदांत के क्षेत्र में ऐसा स्वीकार किया गया है कि मक्ति या मोक्ष प्राप्त करना ज्ञान के बिना संभव नहीं है, क्योंकि मुक्ति या मोक्ष का अर्थ वहाँ संसार से छटकर ब्रह्मसाक्षात्कार करना या ब्रह्मसारू प्राप्त करना है। जीव अविद्या से अवच्छिन्न- युक्त है। अविद्या का अर्थ अज्ञान है। वैसा होने के कारण वह जो जैसा है, उसको वैसा न मान कर, उसके विपरीत मानता है, अर्थात् असत्य को सत्य मानता है। शरीर जो नश्वर है, उसी को स्थिर, शाश्वत मान कर उसमें आसक्त रहता है। वास्तव में ब्रह्म और जीव में कोई भेद नहीं है। जो भेद प्रतीत होता है, वह मिथ्या है।
ब्रह्मसत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः । अर्थात् ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या- अवास्तविक है। जीव ब्रह्म ही है, कोई दूसरा नहीं है। इस तत्त्व को आत्मसात कर लेने से अविद्या नष्ट हो जाती है, उसका स्थान विद्या ले लेती है। विद्या का अर्थ सत्यपरक या यथार्थ ज्ञान है। उपनिषद् में 'विद्ययामृतमश्नुते'- शब्दों द्वारा विद्या को अमृत की उपमा दी गई है, जो विद्या या सद् ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उपनिषद्कार के शब्दों में वह अमत का
आस्वादन करता है। । उपनिषदों में जिसे ज्ञान कहा है, वह अनुभूति और श्रद्धा के साथ जुड़ा है। वह केवल बाहरी जानकारी तक ही सीमित नहीं है। उसका मनन, चिंतन और निदिध्यासन के साथ गहरा संबंध है। इन्हीं द्वारा परिष्कृत होकर वह अंतश्चेतना उत्पन्न करता है। इसीलिए कहा गया है
'नैषा तर्केण मतिरापनेया- अर्थात् ऐसी बुद्धि, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके, तर्क द्वारा, शुष्क ज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं होती। ___ जब अविद्या, अज्ञान- मिथ्याज्ञान का नाश होता है, तब वह भय दूर हो जाता है, जो अज्ञान-जनित होता है। जैसे कोई व्यक्ति अंधेरे में चल रहा हो, रास्ते में एक मोटी रस्सी पड़ी हो, अंधेरे में सभी वस्तुएं काली दिखाई पड़ती हैं, उस पुरुष को रस्सी में सांप का भ्रम हो जाता है। इसलिए
१. ईशावास्योपनिषद्, मंत्र-११ : ईशादि नौ उपनिषद्, पृष्ठ : ११. २. कठोपनिषद्, अध्याय-१, वल्ली-२, श्लोक-९, ईशादि नौ उपनिषद्, पृष्ठ : ८३.
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