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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन ।
तथा कृती निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् ।
दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित्, क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। जब दीपक निर्वत हो जाता है- बुझ जाता है, तब न तो वह पृथ्वी पर जाता है, न अंतरिक्ष में, न किसी दिशा में और न किसी विदिशा में ही जाता है, किन्त तेल का क्षय हो जाने से वह केवल शांति प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार कृतित्वशील पुरुष- साधक जो निर्वाण प्राप्त कर लेता है, वह न पृथ्वी पर, न अंतरिक्ष में, न दिशा-विदिशा में ही जाता है, वह क्लेशों का क्षय हो जाने से केवल शांति प्राप्त करता है।
बौद्ध धर्म में हीनयान और महायान- दो मुख्य संप्रदाय रहे हैं। निर्वाण के संबंध में दोनों की मान्यताएँ भिन्न हैं। निर्वाण भावरूप है अथवा अभावरूप इस विषय में बौद्ध दर्शन में पर्याप्त मीमांसा की गई है। हीनयान के अनुसार मनुष्य तीन प्रकार के दुःखों से पीड़ित है१. दुःख-दुःखता- भौतिक तथा मानसिक कारणों से उत्पन्न होने वाले क्लेश। २. संस्कार-दुःखता- उत्पत्ति तथा विनाश-युक्त जागतिक वस्तुओं से उत्पन्न होने वाला क्लेश । ३. विपरिणाम-दु:खता- सुख के दुःख रूप में परिणत होने के कारण उत्पन्न होने वाला क्लेश।
मनुष्य को इन क्लेशों से कभी छुटकारा नहीं मिलता, चाहे वह कामधातु, रूपधातु अथवा अरूपधात में ही जीवन क्यों न व्यतीत करता हो। इन दु:खों से छूटने का उपाय बतलाते हुए बुद्ध ने कहा कि आर्य सत्यों का अनुशीलन, अष्टांगिक मार्ग का पालन तथा जगत् के पदार्थों में आत्मा का अस्वीकार, क्लेशों से मुक्त होने का मार्ग है। हीनयान के अनुसार आर्य सत्यों के ज्ञान से और सदाचार के अनुष्ठान से साधक क्लेशों से मुक्ति पा सकता है। हीनयान की यही निर्वाण की कल्पना है। उसके अनुसार निर्वाण, सत्य, नित्य, पवित्र तथा दु:खाभाव रूप है।
हीनयान द्वारा निर्वाण के लिए दिए गए इन चार विशेषणों में अंतिम विशेषण 'दुखाभावरूप' पर महायान की आपत्ति है। उसके अनुसार निर्वाण दुःखाभाव रूप नहीं है, प्रत्युत वह सुखरूप है।
हीनयान के अनुसार भिक्षु जब अर्हत् की दशा प्राप्त कर लेता है, तब वह निर्वाण पा लेता है। निर्वाण वह मानसिक दशा है, जब भिक्षु जगत् के अनंत प्राणियों के साथ अपना विभेद नहीं कर सकता। उसके व्यक्तित्व का लोप हो जाता है तथा सब प्राणियों के एकत्व की भावना उसके हृदय में जागरित हो उठती है। वह अष्टांग मार्ग के सेवन से अपने दु:खों से मुक्ति पा लेता है। उसे
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१. सौन्दरनंद, सर्ग-१६, श्लोक-२८, २९.
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