________________
सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण -
अक्षरत्वात् वरेण्यत्वात् धूत-संसार-बंधनात् ।
तत्त्वमस्यर्थसिद्धत्वादवधूतोऽभिधीयते ।। जो अक्षरावस्था- अमरत्व प्राप्त कर लेता है, जो वरेण्य- उत्कृष्टतम स्थिति पा लेता है, जो 'तत्वमसि'- तुम वही हो, ब्रह्म ही हो, ऐसा साध लेता है, वह साधक अवधूत कहा जाता है।'
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि अवधूत शब्द ऐसे महान् साधकों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो संसार से सर्वथा आनासक्त, तटस्थ, पृथक् रहते हुए अपने आत्मस्वरूप में रमणशील होते थे। श्रीमद्भागवत में ऋषभ का एक ऐसे ही महान् अवधूत के रूप में वर्णन आया है। उन्हें जगत् का जरा भी भान नहीं था। कोई कुछ भी कर जाता तो उन्हें पता नहीं चलता। वे परमात्म-भाव में लीन होकर जगत् के समग्र प्रपंचों से सर्वथा पृथक् हो गए थे। भागवत् का यह वर्णन वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के जीवन के साथ किसी अपेक्षा से संगति लिए हुए है।
भागवतकार ने जड़ भरत का भी एक महान अवधूत के रूप में वर्णन किया है, जो लोगों द्वारा तरह तरह से उत्पीड़ित, लांछित और अपमानित किए जाने पर भी जरा भी प्रभावित नहीं होते थे। उन्हें यह भान तक न रहता कि कोई उनके साथ मनोज्ञ या अमनोज्ञ, प्रिय या अप्रिय तथा अनुकूल या प्रतिकूल व्यवहार कर रहा है।
इस वर्णन से यह प्रगट होता है कि ऐसे अत्यंत उच्च कोटि के परमात्मभावापन्न साधकों या योगियों की एक परंपरा थी, जो सांसारिकता से अत्यंत अलिप्त, असृष्ट और पृथक् थी। देह उनके लिए सर्वथा गौण था, एक मात्र आत्मपरिणमन में ही सदा संलग्न रहते थे। अवधूत एवं धूत : विश्लेषण ___जैन आगमों में धूत शब्द का प्रयोग हुआ है। आचारांग-सूत्र के छठे अध्ययन का नाम 'धूताध्ययन है। उसके दूसरे उद्देशक में धूत के स्वरूप का विवेचन हुआ है। उसका निष्कर्ष यह है कि सर्व प्रकार की आसक्तियाँ, काम, राग, मोह, माया, मूर्छा आदि से ऊँचा उठा हुआ जो साधक परमोत्कृष्ट वैराग्यमय, त्यागमय जीवन का अनुसरण करता है, समस्त दुर्बलताओं से उन्मुक्त होकर वीतराग प्ररूपित पथ पर प्राणप्रण से अपने आपको लगाए रखता है, उसे धूत कहा जाता है। | धूत का यह विश्लेषण उपर वर्णित अवधूत के विवेचन के साथ संगत प्रतीत होता है। दोनों ही स्थानों में हुए वर्णन का सारांश लगभग एक जैसा है। संभव है धूत शब्द, अवधूत से ही निष्पन्न हुआ
१. संस्कृत-हिंदी-कोश (वामन शिवराम आप्टे), पृष्ठ : १०९. २. आचारांग-सूत्र, प्रथम-श्रुतस्कंध, अध्याय-६, उद्देशक-२, सूत्र-१८३-१८५, पृष्ठ : २०३-२०८.
454