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________________ णमो सिद्वाणं पद: समीक्षात्मक अनशीलन 24 KaisessmRESE है। भाषा शास्त्रीय दृष्टि से शब्द के संक्षिप्तिकरण की एक प्रक्रिया रही है, जिसके अनुसार किसी शब्द के कुछ अंश को हटा दिया जाता है। अवशिष्ट अंश ही शब्द के अर्थ को ज्ञापित करता है। जैसे ऋषभदेव से ऋषभ, पार्श्वनाथ से पार्श्व, महावीर से वीर, रामचंद्र से राम, कृष्णचंद्र से कृष्ण इत्यादि इसके अनेक उदाहरण हैं। तद्नुसार धूत शब्द का अर्थ वही माना जा सकता है, जो अवधूत का है। इस प्रकार यह शब्द ब्राह्मण-परंपरा और श्रमण-परंपरा- दोनों में ही किसी न किसी रूप में प्रचलित रहा है। निगुर्णाश्रयी ज्ञानमार्गी धारा के महान् संत कबीर ने अपनी वाणी में स्थान-स्थान पर 'अवधू' शब्द का प्रयोग किया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'कबीर' नामक पुस्तक में अवधूत शब्द का विवेचन करते हुए लिखा है- “भारतीय साहित्य में अवधू शब्द कई संप्रदायों के सिद्ध आचार्यों के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। साधारणत: जागतिक द्वन्द्वों से अतीत, मानापमान विवर्जित, पहुँचे हुए योगी को अवधूत कहा जाता है।" अवधूत-गीता में अवधूत के स्वरूप का जो वर्णन हुआ है, वह एक ऐसे ब्रह्मत्व या सिद्धत्व की दिशा में सर्वथा समुद्यत साधक का है, जिसके जीवन में लौकिकता का जरा भी संश्लेष नहीं होता। यहाँ साधक में परमात्मभाव या ब्रह्मात्मैक्य का अनुभव करने की दिशा में अग्रसर होता जाता है। परमात्मभावानुभूति अवधूत गीता में उल्लेख हुआ है- एक अवधूत योगी यह चिंतन करता है कि जो सर्व स्वरूप, निष्फल- अव्यय-रहित, गगन की ज्यों निर्लेप, स्वभावत: निर्मल तथा शुद्ध देव हैं, नि:संदेह 'मैं वही हूँ।' मैं अव्यय-व्यय या विनाश-रहित अथवा विकार-रहित, अंतरहित, शुद्ध विज्ञान स्वरूप हूँ। अत: किसी को, कोई, किसी प्रकार से सख या द:ख होता है. वह मैं नहीं जानता। मन से होने वाले शभ अथवा अशुभ कर्म मेरे नहीं हैं एवं वाणी से होने वाले शुभ अथवा अशुभ कर्म मेरे नहीं हैं। अर्थात् | किसी कर्म का मेरे साथ संबंध नहीं है, क्योंकि मैं ज्ञानामृत स्वरूप शुद्ध एवं अतींद्रिय हूँ। ऐसा अनुभव होता है कि मन आकाश के समान आकार युक्त- विशाल है। वह सर्वतोमुख- सब ओर व्याप्त रहता है, समस्त जगत् रूप में प्रतीत होता है, किंतु यदि तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो मन कोई वस्तु ही नहीं है। अवधूत यह चिंतन करता है- मैं समस्त विश्व स्वरूप हूँ। आकाश से परे- अतीत हूँ, ऐसी स्थिति में अपने आपको प्रत्यक्ष या तिरोहित- परोक्ष कैसे समझू । १. कबीर, पृष्ठ : ३९. २. अवधूत गीता, श्लोक-६, १०, पृष्ठ : १४, १५. 455 RECHARAKAL
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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