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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन तत्वर जो सं श्रीमद् भी भा जगत् तीर्थंक प्रकृति और विकृति से शून्य, समस्त लौकिक भावनाओं से अतीत समरस, असमान- असदृश प्रमाण की पहुँच से अतीत- दूरवर्ती, निगम-वचनों से सिद्ध नित्य अस्मद्-मूलक स्वरूप में विद्यमान पूर्ण-ब्रह्म की विद्वान्, आत्मवेत्ता समाधि अवस्था में अपने हृदय में अनुभूति करते हैं। अजर- जरा-रहित, अमर- मृत्यु-रहित, अस्ताभास- आभास-रहित वस्तुस्वरूप, निश्चल जलराशि के तुल्य, आख्याविहीन- नाम रहित गुणात्मक विकार से शून्य शाश्वत, शांत अद्वितीय पूर्ण-ब्रह्म को आत्मज्ञानी समाधि अवस्था में अपने अंतस्थल में आकलित करते हैं। समस्त उपाधियों से विनिर्मुक्त, सच्चिदानंद स्वरूप, अद्वितीय आत्मस्थ आत्मा का, परमात्मा का चिंतन करो। इससे पुन: भवचक्र में नहीं आओगे। अवधूत गीता में ब्रह्मानुभूति का विवेचन वैदिक साहित्य में अवधूत गीता का नाम बहुत प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि यह अवधूत दत्तात्रेय द्वारा प्रणीत है। ___ अवधूत शब्द भारतीय साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। विशेषत: योग में इसका प्रयोग प्राप्त होता है। दत्तात्रेय ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों के अंशावतार माने जाते हैं। श्रीमद्भागवत के तृतीय अध्याय में ऐसा उल्लेख हुआ है कि दत्तात्रेय छठे अवतार थे, जिन्होंने अत्रि ऋषि के घर अनसूया के गर्भ से पुत्र-रूप में उत्पन्न हुए। उन्होंने अलर्क राजा और प्रहलाद आदि को अध्यात्म-विद्या का उपदेश दिया। ऐसा माना जाता है कि वह उपदेश ही अवधूत गीता के नाम से प्रसिद्ध है। ___ अवधूत शब्द योग-वाङ्मय का एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। यह 'अव' पूर्वक 'धू' धातु से बना है। जिसका अर्थ हिलाना, कंपाना या शुद्ध करना है। इसके अनुसार अवधूत वह होता है, जो कर्मों को, विकारो को, विभावों को अपने उग्र योग- तपश्चरण द्वारा कंपा देता है। उस संबंध में लिखा है यो विलंघ्याश्रमान् वर्णानात्मन्येव स्थित: पुमान् । अतिवर्णाश्रमी योगी अवधूत: स उच्यते ।। जो पुरुष ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास रूप आश्रमों का तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र रूप वर्गों का विलंघन कर अपने आत्म स्वरूप में ही स्थित रहता है, वह अतिवर्णाश्रमीवर्णाश्रमों से अतीत, उच्चावस्था-प्राप्त योगी होता है. और भी कहा है तरह । उन्हें य प्रतिकूल योगियों सर्वथा अवधू 'धूताध्य सर्व प्रक परमोत्कृ वीतराग धू स्थानों में १. विवेक चूड़ामणि, श्लोक-४०८-४१३. १. संस्कृत २. आचार 453 SC
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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