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सिद्धत्वोपलब्धि ब्रह्मासाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण ।
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परमात्म-तत्त्व अत्यंत सूक्ष्म है। उसे कोई भी पुरुष स्थूल दृष्टि से प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए सत्पुरुषों को चाहिए कि वे उसे समाधि द्वारा अत्यंत सूक्ष्म बुद्धि से जाने। __ इस प्रकार अग्नि में पुटपाक-विधि द्वारा भलीभाँति जलाकर शुद्ध किया हुआ सुवर्ण समग्र मल का त्याग कर अपने आत्म-गुण को, स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार मन ध्यान के द्वारा सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण रूप मल का परित्याग कर आत्म-तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।
जब निरंतर- अहर्निश अभ्यास से परिपक्व होकर मन ब्रह्म में लीन हो जाता है, उस समय अद्वितीय ब्रह्मानंद रस का जिससे अनुभाव होता है, वहाँ निर्विकल्प समाधि स्वयं ही सिद्ध हो जाती है।
निर्विकल्प समाधि के सिद्ध हो जाने पर समस्त वासनात्मक ग्रंथियों का नाश हो जाता है। वैसा होने पर संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं और फिर भीतर-बाहर सर्वत्र, सर्वदा बिना किसी प्रयत्न के ही आत्म-स्वरूप स्फुरित होने लगता है।
श्रुति- वेदांत के श्रवण से उसका मनन शोभन- उत्तम है। मनन से निदिध्यासन- आत्मभावक चित्त में स्थिरीकरण लाख गुणा श्रेयस्कर है तथा निदिध्यासन से भी निर्विकल्प समाधि का अनंत गुणा महत्त्व है। उससे चित्त फिर आत्मस्वरूप से कभी विचलित नहीं होता।
निर्विकल्प समाधि द्वारा निश्चित रूप से ब्रह्म तत्त्व का स्फुट-विशद ज्ञान होता है और किसी भी प्रकार से वैसा ज्ञान उपलब्ध नहीं हो पाता, क्योंकि अन्य अवस्थाओं में चित्त-वृत्ति चंचलता रहित नहीं होती। उसमें अन्यान्य प्रत्यय-प्रतीतियाँ मिश्रित रहती हैं। अत: साधक अपनी इंद्रियों को संयत बनाकर शांत मन से निरंतर ब्रह्म में चित्त को स्थिर करे और सच्चिदानंदमय ब्रह्म स्वरूप के साथ अपना एक्य साधते हुए, अनादिकाल से चली आ रही अविद्या से उत्पन्न अज्ञान, अंधकार का ध्वंस करे। चित्त का चैतन्यस्वरूप में अवस्थापन
जो भी विकल्प उत्पन्न होता है, वह चित्तमूलक है। चित्त का अभाव सध जाने पर विकल्प का कहीं स्थान या अवसर नहीं रहता। अत: साधक अपने चित्त को चैतन्य स्वरूप परमात्मा में समाहित करे।
विद्वान्- आत्मज्ञानी नित्यबोध स्वरूप सर्वथा आनंदरूप निरुपम, नित्य, निश्चेष्ट, गगन के तुल्य, अवधि रहित, कला रहित, विकल्प रहित, पूर्ण ब्रह्म का समाधि अवस्था में अपने अंत:करण में साक्षात् अनुभव करता है।
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१. विवेक चूडामणि, श्लोक-३६४-३६७.
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