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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन ।
कारण नहीं है। निरंतर दृश्य के आग्रह में- आत्मनिष्ठा में स्थित रहने से दृश्य का अग्रहण हो जाता है, दृश्य बाधित हो जाता है और सर्वोत्तमभाव की प्राप्ति होती है।
जो व्यक्ति देहात्मा बुद्धि में स्थिर रहकर, शरीर को आत्मा मान कर बाह्य पदार्थों की मन में आसक्ति रखते हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए निरंतर उद्यत रहते हैं, उनको दृश्य की अप्रतीति कैसे हो सकती है? अत: शाश्वत आनंद के इच्छुक तत्त्ववेत्ता को चाहिए कि वह समस्त धर्म, कर्म एवं विषयों को त्याग कर निरंतर आत्मनिष्ठा में तत्पर बने। अपनी आत्मा में प्रतीयमान दृश्यरूप प्रपंच का प्रयत्नपूर्वक निरोध करे।'
समाधि द्वारा अद्वैत स्वरूपानुभूति | जब निर्विकल्प समाधि द्वारा अद्वैत आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है, तब हृदय की अज्ञान
रूप ग्रंथी का सर्वथा नाश हो जाता है। | अद्वितीय और निर्विशेष परमात्मा में वृद्धि के दोष के कारण त्वं' और 'अहं'- ऐसी कल्पना होती है। वह विकल्प समाधि में विघ्न रूप से स्फुरित होती है, किंतु तत्त्व का यथावत्- सही रूप में ग्रहण होने से वह सब लीन हो जाता।
योगी चैतसिक शांति, इंद्रिय-दमन, विषयों से उपरति- विरक्ति तथा शांति और समाधि का निरंतर अभ्यास करता हुआ, अपने आप में सर्वात्म-भाव का अनुभाव करता है। उसके द्वारा अविद्यारूप अंधकार से जनित समस्त विकल्पों को भलीभाँति दग्ध कर, ध्वस्त कर, निष्क्रिय और निर्विकल्प होकर आनंदपूर्वक ब्रह्माकार-वृत्ति में विद्यमान रहता है। ___ जो पुरुष श्रोत्र आदि इंद्रिय वर्ग- समूह, चित्त एवं अहंकार इन बाह्य वस्तुओं को चिदात्मा में लीन कर समाधि में संस्थित होते हैं, वे ही संसार-बंधन से मुक्त हैं, जो केवल परोक्ष ब्रह्मज्ञान की कथा करते हैं, चर्चा करते रहते हैं, वे कभी मुक्त नहीं हो सकते।
आत्मा में जो भेद प्रतीति होती है, वह उपाधि के भेद से ही होती है। जब उपाधि का लय हो जाता है तो आत्मा केवल स्वयं ही रह जाती है। अत: उपाधि का लय करने हेतु विचारशील पुरुष को सदा निर्विकल्प-समाधि में अवस्थित रहना चाहिए।एक निष्ठा से- एकाग्र चित्त द्वारा पुरुष निरंतर सत् स्वरूप ब्रह्म में संस्थित रहने से उसी प्रकार ब्रह्मस्वरूप हो जाता है, जैसे भयपूर्वक भमर का ध्यान करते-करते कीड़ा भमरत्त्व- भमरस्वरूप पा लेता है।
१. विवेक चूडामणि, श्लोक-३३९-३४१.
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