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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
अनेक प्रकार के भोग क्षणभंगुर- नश्वर हैं। उनके कारण यह संसार भी वैसा ही है। इसलिए हे सांसारिक लोगों! आप किस दुर्लभ वस्तु को पाने के लिए परिभ्रमण कर रहे हों। आप की ये चेष्टाएं निरर्थक हैं, इसलिए आशारूपी सैकड़ों बंधनों से अपने चित्त को मुक्त करो, निर्मल बनाओ। भोगों से हटकर उसको आत्म-मंदिर में, आत्म-साक्षात्कार में लगाओ।'
हे चित्त ! तूं बड़ा चंचल है। कभी पाताल में बहुत नीचे चला जाता है तो कभी आकाश में ऊँचा घूमता है, फिर आकाश को लांघकर दिशाओं के मंडल में चक्कर लगाता है। तूं आत्महित कर, आत्म श्रेयस्कर शुद्ध ब्रह्म का स्मरण क्यों नहीं करता ? जिससे तुम्हें सच्ची शांति का अनुभव हो।
जिसके प्राप्त होने पर तीनों लोकों का आधिपत्य भी रसहीन हो जाता है, उसे पाकर फिर आसन, वस्त्र, सम्मान आदि प्राप्त करने में, उनका भोग करने में, रति- अनुराग मत करना । अध्यात्म ही एक नित्य एवं अनवरत प्राप्त होने वाला परम आनंद है, जिसका आस्वाद ले लेने पर तीनों लोकों के राज्य आदि विषय फीके लगने लगते हैं।
हे पथ्वी माता ! हे पवन भैया, हे अग्नि मित्र, हे सुबंधु जल, हे आकाश भाता यह आपको मेरा अंतिम प्रणाम है। क्योंकि आप की संगति के कारण उत्पन्न पुण्य से प्राप्त विशद निर्मल ज्ञान द्वारा समस्त अज्ञान परंपरा का नाश करता हुआ, में परब्रह्म मे लीन हो रहा हूँ।
जिस नित्य- शाश्वत, परम कल्याणमय ब्रह्मानंद में निमग्न पुरुष, ब्रह्मा, इंद्र आदि देव-वृंद तण के समान तुच्छ मानता है, जिसका आस्वाद प्राप्त होने पर तीनों लोकों का राज्य आदि संपत्तियाँ भी निरस प्रतीत होती हैं। हे साधो ! उसके अतिरिक्त अन्य क्षणभंगुर भोगों में तुम अनुरागी मत बनो। विवेक चूड़ामणि में ब्रह्म-ज्ञान का मार्ग-दर्शन
विवेक चूडामणि आद्य शंकराचार्य द्वारा रचित एक संक्षिप्त किंतु सारगर्भित ग्रंथ है। उसमें उन्होंने बड़े ही प्रेरक शब्दों में उल्लेख किया है- "चाहे कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का यजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवार्चन करे तथापि आत्मैक्य- ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता, तब तक सैंकड़ों ब्रह्मकल्पों के व्यतीत हो जाने पर भी मुक्ति, सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती।
श्रुति कहती है- धन से अमृतत्त्व की आशा नहीं की जा सकती। न कर्म में ही मुक्ति का हेतु है।
MARANAS
१. वैराग्यशतक, श्लोक-३९.
२. वैराग्यशतक, श्लोक-७०.
३. वैराग्यशतक, श्लोक-४०.
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